धरती पर रहने वाला मानव बन गया तारा, पढ़ें कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 08 Jun, 2019 03:42 PM

story of the devote dhruv

महाराज उत्तानपाद की दो रानियां थीं। उनकी बड़ी रानी का नाम सुनीति और छोटी का नाम सुरुचि था। सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे।

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महाराज उत्तानपाद की दो रानियां थीं। उनकी बड़ी रानी का नाम सुनीति और छोटी का नाम सुरुचि था। सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे। सुनीति प्राय: उपेक्षित थी इसलिए वह संसारिकता से विरक्त होकर अपना अधिक से अधिक समय भगवान के भजन-पूजन में व्यतीत करती थी। एक दिन बड़ी रानी के पुत्र ध्रुव अपने पिता महाराज उत्तानपाद की गोद में बैठ गए। सुरुचि ने उन्हें खींचकर वहां सेे उतार दिया और फटकारते हुए कहा, ‘‘यह गोद और राजा का सिंहासन मेरे पुत्र उत्तम का है। तुम्हें यह पद प्राप्त करने के लिए भगवान की आराधना करके मेरे गर्भ से उत्पन्न होना पड़ेगा।’’

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ध्रुव सुरुचि के इस बुरे व्यवहार से बहुत दुखी हुआ और रोते हुए अपनी मां सुनीति के पास आए। अपनी सौत के व्यवहार के विषय में जानकर सुनीति के मन में भी अत्यधिक पीड़ा हुई। उन्होंने ध्रुव को समझाते हुए कहा, ‘‘पुत्र! तुम्हारी विमाता ने क्रोध के आवेश में भी ठीक ही कहा है। भगवान ही तुम्हें पिता का सिंहासन अथवा उससे भी श्रेष्ठ पद देने में समर्थ हैं। अत: तुम्हें उनकी ही आराधना करनी चाहिए।’’

माता के वचनों पर विश्वास करके पांच वर्ष का बालक ध्रुव वन की ओर चल पड़ा। मार्ग में उसे देवर्षि नारद मिले। उन्होंने ध्रुव को अनेक प्रकार से समझाकर घर लौटाने का प्रयास किया, किंतु वे उसे लौटाने में असफल रहे। अंत में उन्होंने ध्रुव को द्वादशाक्षर मंत्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’)  की दीक्षा देकर यमुना तट पर अवस्थित मधुवन में जाकर तप करने का निर्देश दिया।

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ध्रुव देवर्षि को प्रणाम करके मधुवन पहुंचे। उन्होंने पहले महीने में कैथ और बेर, दूसरे महीने में सूखे पत्ते, तीसरे महीने में जल और चौथे महीने में केवल वायु ग्रहण करके तपस्या की। पांचवें महीने में उन्होंने एक चरण पर खड़े होकर श्वास लेना भी बंद कर दिया। मंत्र के प्रभाव से भगवान वासुदेव में ध्रुव का चित्त एकाग्र हो गया। संसार के एकमात्र आधार भगवान में एकाग्र होकर ध्रुव के श्वास-अवरोध कर देने से देवताओं का श्वासावरोध स्वत: हो गया। उनके प्राण संकट में पड़ गए। देवताओं ने भगवान के पास जाकर उनसे ध्रुव को तप से निवृत्त करने की प्रार्थना की।

ध्रुव भगवान के ध्यान में लीन थे। अचानक उनके हृदय की ज्योति जाग गई। ध्रुव ने घबराकर अपनी आंखें खोलीं। सामने शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी भगवान स्वयं खड़े थे। ध्रुव अज्ञानी बालक थे। उन्होंने हाथ जोड़कर स्तुति करनी चाही, किंतु वाणी ने साथ नहीं दिया। भगवान ने उनके कपोलों से अपने शंख का स्पर्श करा दिया। बालक ध्रुव के मानस में सरस्वती जागृत हो गईं। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान की भावभीनी स्तुति की। भगवान ने प्रसन्न होकर उन्हें उत्तम और अटल पद पर विराजित होने का वरदान दिया।

घर लौटने पर महाराज उत्तानपाद ने ध्रुव का स्वागत किया और उनका राज्याभिषेक करके तप के लिए वन को चले गए। ध्रुव नरेश हुए। संसार में प्रारब्ध शेष हो जाने पर ध्रुव को लेने के लिए स्वर्ग से विमान आया। ध्रुव मृत्यु के मस्तक पर पैर रखकर विमान में बैठकर स्वर्ग पधारे। उन्हें अविचल धाम प्राप्त हुआ। उत्तर दिशा में स्थित ध्रुव तारा आज भी उनकी अपूर्व तपस्या का साक्षी है।

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