स्वामी दर्शनानंद सरस्वती: पुरुषार्थ के बल पर साधारण व्यक्ति भी प्राप्त कर सकता है विद्वता

Edited By Jyoti,Updated: 13 Aug, 2020 02:00 PM

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स्वामी दर्शनानंद का जीवन इस बात का साक्षी है कि एक साधारण पुरुष पुरुषार्थ के बल पर असाधारण विद्वत्ता प्राप्त कर सकता है।

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स्वामी दर्शनानंद का जीवन इस बात का साक्षी है कि एक साधारण पुरुष पुरुषार्थ के बल पर असाधारण विद्वत्ता प्राप्त कर सकता है। अद्वितीय दार्शनिक विद्वान, शास्त्रार्थ समर में प्रतिपक्षियों के गर्व को मर्दित करने वाले, अनेक ग्रंथों के प्रणेता, गुरुकुलों की स्थापना में अनन्य रुचि रखने वाले स्वामी दर्शनानंद का जन्म 1861 में लुधियाना जिले के जगरांव कस्बे में एक ब्राह्मण पं. रामप्रताप के यहां हुआ था। उनका बचपन का नाम पं. कृपाराम था। धनी परिवार के पुत्र कृपाराम के कुल का वाणिज्य-व्यवसाय था। पिता ने यही चाहा था कि कृपाराम व्यवसाय के क्षेत्र में नाम कमाए, किंतु यह लड़का किसी दूसरी मिट्टी से बना था। वह दुकानदारी में लगा अवश्य किंतु धनोपार्जन के दांव-पेंच सीखने की अपेक्षा इसने सरस्वती उपासना को अपना लक्ष्य बनाया। फलत: पंजाब को त्यागकर वह विद्या की नगरी काशी की ओर चल पड़ा।
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उन दिनों काशी के पंडितों में पं. हरिनाथ (संन्यासी बनने पर स्वामी मनीष्यानंद कहलाए) का बड़ा नाम था। कृपाराम उन्हीं के विद्यालय में प्रविष्ट हुए और स्वल्प काल में ही विभिन्न शास्त्रों में निपुणता प्राप्त कर ली। पं. कृपाराम खुद तो विद्यार्थी थे, परंतु उन्होंने अनुभव किया कि संस्कृत के पाठ्य ग्रंथ पर्याप्त महंगे हैं, अत: साधारण विद्यार्थी को उन्हें प्राप्त करने में कठिनाई होती है। उनकी जेब में पर्याप्त धन था, चटपट ‘तिमिरनाशक प्रैस’ की स्थापना कर दी और अल्प मोल में अष्टाध्यायी, महाभाष्य तथा दर्शन शास्त्र के ग्रंथ छात्रों को सुलभ कराने लगे। बहुत दरिद्र विद्यार्थी को बिना एक पैसा लिए पुस्तक उपलब्ध कराने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था।

शीघ्र ही स्वामी दर्शनानंद स्वामी दयानंद के विचारों के अनुयायी बन गए और वैदिक धर्म के प्रचार में लग गए। अमृतसर की जिस धर्म सभा में स्वामी दयानंद पर कट्टर पथियोंं ने पत्थरों की वर्षा की थी, एक पत्थर पं. कृपाराम को भी लगा था। 1893 से 1901 तक विभिन्न स्थलों पर धर्म प्रचार करने के पश्चात्, उन्होंने शांत स्वामी अनुभवानंद से चतुर्थाश्रम की दीक्षा ले ली। दर्शनों में विशिष्ट रुचि होने के कारण उन्होंने अपना नाम दर्शनानंद रखा। इस समय से जीवन के अंतिम क्षण तक इन्होंने  धर्म प्रचार, साहित्य लेखन, गुरुकुल-स्थापना और पत्रों के संचालन को अपना व्यसन बनाए रखा। उनकी जीवन यात्रा 11 मई, 1913 को हाथरस में पूरी हुई, जब मात्र 52 वर्ष की आयु में उन्होंने नश्वर काया का त्याग किया।

स्वामी जी ने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उर्दू भाषा को अपनाया। यद्यपि वह संस्कृत के विद्वान् थे और ङ्क्षहदी पर भी उनका अधिकार था। उनके इस समस्त उर्दू साहित्य को अविलम्ब हिंदी में अनुदित किया जाता था।

स्वामी दर्शनानन्द ने लघु पुस्तिकाओं (ट्रैक्ट) के लेखन में एक नया मानदंड बनाया था। यदि उनके युग में ‘गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड्स’ जैसी कोई व्यवस्था होती, तो नित्य एक ट्रैक्ट लिखकर भोजन करने का व्रत रखने वाले लेखकों की सूची में उनका अकेले का ही नाम होता।

लेखन के साथ-साथ स्वामी दर्शनानंद को हिंदी तथा उर्दू में वैदिक धर्म विषयक पत्र-पत्रिकाओं को प्रकाशित करने तथा प्राचीन शिक्षा प्रणाली को पुनर्जीवित करने वाले नए-नए गुरुकुलों की स्थापना का भी शौक था।
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पत्र प्रकाशन की ही भांति स्वामी जी गुरुकुलों की स्थापना में अत्यधिक रुचि लेते थे। झटपट गुरुकुल की स्थापना की, व्यवस्था का भार स्थानीय लोगों को सौंपा और आगे चल पड़े। उन्होंने निम्न गुरुकुल स्थापित किए-बदायूं में 1903 में, इससे पहले सिकंदराबाद में 1898 में, बिरालसी, जिला मुजफ्फरनगर 1905 में, रावलपिंडी तथा ज्वालापुर में 1907 में। उनके द्वारा स्थापित महाविद्यालय ज्वालापुर का आर्य गुरुकुलों में विशिष्ट स्थान है।

अद्वितीय बौद्धिक प्रतिभा के धनी स्वामी दर्शनानंद के शास्त्रार्थों के रोचक प्रसंग अब भुलाए जा चुके हैं। पं. श्रीराम शर्मा (आगरा) ने स्वामी जी का एक प्रामाणिक जीवनचरित लिखा, जो 1959 में आगरा से छपा। अन्य लेखकों ने उनके छोटे बड़े जीवन-चरित लिखे हैं।

समय की रफ्तार के साथ-साथ दर्शनानंद के जीवन और कृतित्व विषयक सामग्री अब लुप्त हो रही है। इतिहास संरक्षण तथा पुरातत्त्व अन्वेषण में आर्य समाज की रुचि समाप्त हो गई है। आवश्यकता इस बात की है कि स्वामी दर्शनानंद के साहित्य को नए ढंग से प्रकाशित करने का प्रयास किया जाए।
—डॉ. भवानीलाल भारतीय

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