Edited By Punjab Kesari,Updated: 16 Jun, 2017 11:04 AM
एक राजा अपने नगर के भ्रमण पर निकला। वह कुछ दूर ही चला कि एक भिखारी आया और
एक राजा अपने नगर के भ्रमण पर निकला। वह कुछ दूर ही चला कि एक भिखारी आया और उससे भिक्षा की मांग की। राजा ने उसे परेशान न करने और आगे जाने को कहा। भिखारी उलाहने वाली हंसी हंसा और बोला, ‘‘महामहिम, अगर मेरे बोलने से आपके मन की शांति भंग हो रही है तो फिर मान लीजिए कि वह पूर्ण शांति है ही नहीं।’’
राजा को पता चला कि वह असल में भिखारी नहीं, बल्कि एक साधु है। उसने अपना सर उनके चरणों में झुकाया और कहा, ‘‘हे महात्मा, मुझे अपनी इच्छा बताइए और मैं सारी संपदा आपके चरणों में डाल दूंगा।’’
साधु फिर हंसा, ‘‘उस बात का वादा मत करो जो तुम कर नहीं पाओगे।’’
इस पर राजा को क्रोध आ गया। उसने नगर भ्रमण का ख्याल छोड़ दिया और साधु को अपने महल ले आया।
महल पहुंचकर साधु ने राजा के सामने अपना पात्र कर दिया और बोले, ‘‘बस इस पात्र को सोने के सिक्कों से भर दीजिए।’’
राजा मुस्कुराया और सोने के सिक्के लाने का आदेश दिया। तुरंत सहायक एक थाली भरकर सोने के सिक्के ले आया। जैसे ही राजा ने उसे साधु के पात्र में डाला सारे सिक्के छोटे-से पात्र में समा गए। इसके बाद और सिक्के मंगाए गए लेकिन वे भी पात्र में समा गए। लगातार बहुत सारे सिक्के डालने के बावजूद भी पात्र खाली ही रहा। राजा का पूरा कोष खाली हो गया। यह देखकर राजा ने हार स्वीकार की और साधु के चरणों में दंडवत हो गया।
शिक्षा- यह कहानी यही बताती है कि हमें अपने साधनों के भीतर ही अपनी जरूरतें बनानी चाहिएं। ऐसा करने पर हम भी प्रसन्न रह सकते हैं। हमें लालच से सावधान रहना चाहिए। हर तरह का लालच या घमंड, चाहे वह पद का हो या धन का, हमारा अहित ही करता है। संतोषी व्यक्ति को ही भाग्य का लाभ प्राप्त हो सकता है।