Edited By Jyoti,Updated: 09 Dec, 2019 05:29 PM
दुनिया के बारे में मनुष्य का दृष्टिकोण ही उसके मन की सुख-दुख की स्थिति को निर्धारित करता है। वर्षा ऋतु के समय एक गुरु और शिष्य लम्बी तीर्थ यात्रा पूरी करके अपनी कुटिया की ओर लौट रहे थे
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दुनिया के बारे में मनुष्य का दृष्टिकोण ही उसके मन की सुख-दुख की स्थिति को निर्धारित करता है। वर्षा ऋतु के समय एक गुरु और शिष्य लम्बी तीर्थ यात्रा पूरी करके अपनी कुटिया की ओर लौट रहे थे। दोनों थके-हारे कुटिया के निकट पहुंचे तो देखा कि कुटिया तो आंधी-तूफान में लगभग उजड़ी पड़ी है। कुटिया की ऐसी दुर्दशा देखकर शिष्य धैर्य खो बैठा और वह गुस्से में बोला, “गुरुदेव! इन्हीं बातों से मुझे भगवान की आस्था पर संशय होता है। जो दुर्जन हैं उनके तो महल भी सुरक्षित हैं। हम दिन-रात प्रभु भक्ति में लीन रहते हुए सदा उनके गुण गाते हैं, फिर भी वह हमारी झोंपड़ी तक सुरक्षित नहीं रख सकते।”
परमात्मा के प्रति शिष्य की ऐसी बातें सुन गुरु ने मुस्कुराते हुए सहज भाव से कहा, “वत्स! मैं तो उस दयालु परमेश्वर का आभारी हूं। उसने हमारी रक्षा की है। सोचो यदि उस समय हम कुटिया में गहरी निद्रा में सो रहे होते तो हमें चोट लग सकती थी। उसकी करुणा का मैं बहुत ऋणी हूं। आंधी-तूफान का क्या भरोसा, वह तो पूरी कुटिया ही उड़ा कर ले जा सकता था और हमें भी नुक्सान हो सकता था। परमात्मा की असीम कृपा है कि उसने अपने भक्तों पर इतनी कृपा की और झोंपड़ी को इस स्थिति में रखा कि थोड़ी-सी मेहनत से उसका फिर से निर्माण किया जा सकता है।”
तब शिष्य ने कहा, “लेकिन गुरुवर, अधर्मियों के महलों को तो ईश्वर ने कोई भी नुक्सान नहीं पहुंचाया। उनके महल अब भी बड़ी शान से खड़े हुए हैं।”
गुरु ने समझाया, “वत्स! तू बड़ा भोला है। इस तरह अगर सारी दुनिया से अपनी तुलना करने लगे तो तुम्हें कभी खुशी और प्रसन्नता नसीब नहीं होगी क्योंकि दूसरों से की गई तुलना दिल का सुकून और चैन छीन लेती है। ध्यान रहे, मनुष्य कुटिया या महल से प्रसन्न नहीं रहता बल्कि ईश्वर ने जो दिया है उसमें संतुष्टि का अनुभव करते हुए सदा ईश्वर चिंतन में रहने से ही खुश रह सकता है क्योंकि खुशी और आनंद का खजाना हमारे अंदर मौजूद है।”