Edited By Punjab Kesari,Updated: 25 Nov, 2017 03:33 PM
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 7: भगवद्ज्ञान
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥16॥
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 7: भगवद्ज्ञान
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥16॥
अनुवाद एवं तात्पर्य: हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं-आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी। दुष्कृति के सर्वथा विपरीत ऐसे लोग हैं जो शास्त्रीय विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करते हैं। ये सुकृतिन: कहलाते हैं अर्थात् ये वे लोग हैं जो शास्त्रीय विधि-विधानों, नैतिक तथा सामाजिक नियमों को मानते हैं और परमेश्वर के प्रति न्यूनाधिक भक्ति करते हैं।
इन लोगों की चार श्रेणियां हैं- वे जो पीड़ित हैं, वे जिन्हें धन की आवश्यकता है, वे जिन्हें जिज्ञासा है और वे जिन्हें परमसत्य का ज्ञान है। ये सारे लोग विभिन्न परिस्थितियों में परमेश्वर की भक्ति करते रहते हैं। ये शुद्ध भक्त नहीं हैं, क्योंकि ये भक्ति के बदले कुछ महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं। शुद्ध भक्ति निष्काम होती है और उसमें किसी लाभ की आकांक्षा नहीं रहती।
जब ये चार प्रकार के लोग परमेश्वर के पास भक्ति के लिए आते हैं और शुद्ध भक्त की संगति से पूर्णतया शुद्ध हो जाते हैं, तो वे भी शुद्ध भक्त हो जाते हैं। जहां तक दुष्टों का प्रश्न है उनके लिए भक्ति दुर्गम है क्योंकि उनका जीवन स्वार्थपूर्ण, नियमित तथा निरुद्देश्य होता है। किंतु इनमें से भी कुछ लोग शुद्ध भक्त के सम्पर्क में आने पर शुद्ध भक्त बन जाते हैं।
जो लोग सदैव सकाम कर्मों में व्यस्त रहते हैं, वे संकट के समय भगवान के पास आते हैं और तब वे शुद्धभक्तों की संगति करते हैं तथा विपत्ति में भगवान के भक्त बन जाते हैं। जो बिल्कुल हताश हैं वे भी कभी-कभी शुद्ध भक्तों की संगति करने आते हैं और ईश्वर के विषय में जानने की जिज्ञासा करते हैं।
इसी प्रकार शुष्क चिंतक जब ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र से हताश हो जाते हैं तो वे भी कभी-कभी ईश्वर को जानना चाहते हैं और वे भगवान् की भक्ति करने आते हैं। इस प्रकार ये निराकार ब्रह्म तथा अंतर्यामी परमात्मा की भक्ति करने आते हैं। इस प्रकार ये निराकार ब्रह्म तथा अंतर्यामी परमात्मा के ज्ञान को पार कर जाते हैं और भगवत्कृपा से या उनके शुद्ध भक्त की कृपा से उन्हें साकार भगवान का बोध हो जाता है।
कुल मिलाकर जब आर्त, जिज्ञासु, ज्ञानी तथा धन की इच्छा रखने वाले समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाते हैं और जब वे यह भलीभांति समझ जाते हैं कि भौतिक आसक्ति से आध्यात्मिक उन्नति का कोई सरोकार नहीं है, तो वे शुद्धभक्त बन जाते हैं।
जब तक ऐसी शुद्ध अवस्था प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक भगवान की दिव्यसेवा में लगे भक्त सकाम कर्मों में या संसारी ज्ञान की खोज में अनुरक्त रहते हैं। अत: शुद्ध भक्ति की अवस्था तक पहुंचने के लिए मनुष्य को इन सबों को लांघना होता है।