परमात्मा के पुत्र में होते हैं ये गुण

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 10 Apr, 2018 11:27 AM

these qualities are in the son of god

दया ही धर्म का मूल भाव है। दयाहीन मनुष्य में धर्म नहीं हो सकता। वह हर व्यक्ति अधर्मी है जो प्राणी मात्र का हित न करता हो। जिस प्रकार शुष्क खेत में लाख यत्न करने पर भी बीज का अंकुरित होना असंभव है,

दया ही धर्म का मूल भाव है। दयाहीन मनुष्य में धर्म नहीं हो सकता। वह हर व्यक्ति अधर्मी है जो प्राणी मात्र का हित न करता हो। जिस प्रकार शुष्क खेत में लाख यत्न करने पर भी बीज का अंकुरित होना असंभव है, उसी प्रकार दया रहित हृदय में धर्म का बीज कभी भी अंकुरित नहीं हो सकता। इसलिए संत लोग कहा करते हैं कि सम्यक दृष्टि वाले बनो। परहित के बारे में सोचो। जो सम्यक दृष्टि वाला है वह दूसरों को समान भाव से देखता है। मनुष्य को मनसा, वाचा तथा कर्मणा तीनों प्रकार से दूसरों का अहित नहीं करना चाहिए।


जो व्यक्ति दूसरों के दुख को दूर करने की सोचता है या प्रयास करता है वह असीम सुखों को प्राप्त करता है। सच कहें तो परहित में ही अपना हित निहित होता है। लोगों के प्रति संवेदना प्रकट करो। दूसरों की वेदना को अपनी वेदना समझो क्योंकि वेदना से ही संवेदना उत्पन्न होती है।


पूजा-पाठ, हवन-यज्ञ, दान-धर्म ये जरूरी हैं पर यह संवेदना नहीं है। प्राणियों के प्रति संवेदना अलग है। मंदिरों के निर्माण के लिए किसी धर्मशाला के निर्माण के लिए लाखों रुपए का दान करते हैं और करना भी चाहिए। यह भी संवेदना नहीं है। अगर एक व्यक्ति पीड़ित है, कोई बहुत बड़ी बीमारी उसे लगी है परन्तु इलाज के लिए उसके पास धन नहीं है, उस समय उसे जो पीड़ा हो रही है, उस पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने वाला व्यक्ति ही सचमुच संवेदना से युक्त है।


हृदय में संवेदना है तो सहायता के लिए हाथ अपने आप खड़ा हो जाता है। सम्यक दृष्टि वाले व्यक्ति के हृदय में ही संवेदना प्रकट होती है। जो मनुष्य के दर्द को दर्द मान लेता है वही तो मर्द है। वही सच्चा संवेदनशील व्यक्ति है, वही परमात्मा का पुत्र है।


एक बार एक सेठ ने बहुत ही सुंदर चित्र लाखों रुपयों की कीमत से खरीदा और उसे लेकर घर जा रहा था। तभी एक फटे बेहाल में महिला अपने बच्चे के साथ भीख मांग रही थी। भीख मांग कर ही वह महिला अपना एवं अपने बच्चे का पेट भरती थी। उसी दिन वह महिला उस सेठ से पैसे मांगने लगी परन्तु सेठ ने उसे पैसे नहीं दिए। वह महिला आगे चली गई। तभी उस सेठ ने अपने साथी से पूछा कि यह महिला कौन है जो भीख मांग रही थी। तभी उसके साथी ने कहा कि महाराज यह वही महिला है जिसका चित्र आप लाखों रुपए खर्च करके ले जा रहे हैं।


यही हाल आज के हम मनुष्यों का भी है। चित्र बनवाने के लिए हम लाखों रुपए खर्च कर देते हैं परन्तु चरित्र के लिए हमसे एक रुपया भी नहीं निकलता। मनुष्य भूल जाता है कि जिस भगवान की पूजा करने के लिए वह यज्ञ वेदि पर बैठता है वही भगवान तो प्राणी मात्र में विद्यमान है। अत: प्राणियों की सेवा करो, प्राणियों के प्रति संवेदना प्रकट करो। इसी में हम सबका कल्याण है यही परमात्मा की सच्ची उपासना है, यही प्रभु की सच्ची पूजा है।


संवेदना और सहानुभूति मनुष्य की पहचान है। वर्तमान समय में आदमियों के गुण पशुओं में और पशुओं के गुण आदमियों में आ गए हैं। चित्रों के माध्यम से या टी.वी. चैनलों के द्वारा हम देखते हैं कि एक कुतिया बिल्ली के बच्चों को अपना दूध पिला रही है। एक शुक्री बच्चों को जन्म देकर मर गई है। गाय लेट गई। उस शुक्री के बच्चों को दूध पिला रही है। इन सबका स्वभाव विपरीत है। एक-दूसरे के शत्रु हैं, फिर भी एक-दूसरे की सहायता करते हैं। परन्तु यह इंसान? एक देवरानी अपनी जेठानी के बच्चों को दूध नहीं पिला सकती। इंसान सजाति से भी प्रेम नहीं करता परन्तु पशु विपरीत जाति के होते हुए भी एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। यह है संवेदना का प्रतीक, सहानुभूति का लक्षण।


अगर हमारे भीतर भी इस प्रकार संवेदना और सहानुभूति की भावना नहीं है तो हमें अपने जीवन में इन भावनाओं को प्रकट करना चाहिए। हमारी बौद्धिक संस्कृति और हमारे संस्कार तो यही कहते हैं कि: सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्र दु:ख भागभवेत्।।


इसी प्रकार की भावना हमारी होनी चाहिए।          
 

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