Edited By ,Updated: 03 Mar, 2017 09:08 AM
भारत में अनेक देशों से विद्वान लोग आकर यहां से ज्ञान ग्रहण कर अपने देशों में उसका प्रचार करते रहे हैं। उन्हीं में चीन से आने वाले यात्री ह्वेनसांग भी थे।
भारत में अनेक देशों से विद्वान लोग आकर यहां से ज्ञान ग्रहण कर अपने देशों में उसका प्रचार करते रहे हैं। उन्हीं में चीन से आने वाले यात्री ह्वेनसांग भी थे। वह केवल घुमक्कड़ यात्री नहीं बल्कि धर्म के जिज्ञासु भी थे। कुछ विशेष हासिल करने की उनमें उमंग थी। विद्या की लालसा ही उन्हें दुर्गम हिमालय के इस पार ले आई थी। भारत के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय नालंदा ने उनका स्वागत किया। पहले वह नालंदा के छात्र रहे और अध्ययन करने के बाद उसके अध्यापक भी बने। भारत ने विद्या का सम्मान करने में कोई भेदभाव सीखा ही नहीं। ह्वेनसांग कई वर्ष भारत में रहकर अपनी जन्मभूमि लौट रहे थे। उन्होंने चीन में बौद्ध धर्म की व्यवस्थित शिक्षा के प्रचार का निश्चय किया था।
नालंदा के कुछ उत्साही भारतीय विद्यार्थी उनके साथ थे। सिंधु नदी के मुहाने तक इस यात्री दल की यात्रा र्निवघ्न पूरी हुई किन्तु जब वे नौका से सिंधु नदी पार करने लगे तब अचानक भयंकर आंधी आ गई। मुहाने के पास समुद्र में आया तूफान अपना प्रभाव दिखलाता ही है। स्थिति ऐसी हो गई कि नौका अब डूबी कि तब डूबी। सभी अपनी जान से ज्यादा धार्मिक ग्रंथों के नष्ट हो जाने की आशंका से परेशान थे।
‘मेरा पूरा परिश्रम व्यर्थ गया!’ सोचकर ह्वेनसांग अपना सिर पकड़ कर बैठ गए। इस पर भारतीय विद्यार्थियों ने एक-दूसरे की ओर देखा। एक ने अपने साथियों से कहा, ‘‘भार कम हो जाए तो वाहन बच सकता है। क्या धर्मग्रंथों की रक्षा से होने वाले धर्म प्रचार की अपेक्षा हमारा जीवन अधिक मूल्यवान है?’’
उस विद्यार्थी को शब्दों में उत्तर नहीं मिला। उससे पहले उसके साथी पलक झपकते ही नदी के अथाह जल में कूदकर अदृश्य हो गए। सबसे अंत में कूदने वाला वह स्वयं था। इस तरह अपनी जान गंवा कर विद्यार्थियों ने धर्मग्रंथों की रक्षा की।