Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Jun, 2020 01:16 PM
सर्वोपरि हैं भगवान विष्णुवासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखा:। वासुदेवपरा योगा वासुदेवपरा: क्रिया:।। वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तप:। वासुदेवपरो धर्मों वासुदेवपरा गति:।। समस्त शास्त्रों का तात्पर्य यह है कि भगवान वासुदेव ही एकमात्र भजनीय हैं। वेद-समूह,...
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
सर्वोपरि हैं भगवान विष्णुवासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखा:। वासुदेवपरा योगा वासुदेवपरा: क्रिया:।। वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तप:। वासुदेवपरो धर्मों वासुदेवपरा गति:।।
समस्त शास्त्रों का तात्पर्य यह है कि भगवान वासुदेव ही एकमात्र भजनीय हैं। वेद-समूह, यज्ञ, योग, ज्ञान, तपस्या आदि सभी कार्य भगवान वासुदेवपरक हैं। सभी धर्म कार्यों का पर्यावसान भगवान में है। सृष्टि के आरम्भ में भगवान ने लोकों के निर्माण की इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्व आदि से निष्पन्न पुरुष रूप ग्रहण किया। दस इन्द्रियां, एक मन, पंचभूत और सोलह कलाएं। योगी दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप के दर्शन करते हैं। प्रभु का वह रूप हजारों पैर, भुजाओं और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आंखें और हजारों नासिकाएं हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से वह उल्लसित रहता है।
भगवान का यही पुरुष-रूप, जिसे ‘नारायण’ कहते हैं, अनेक अवतारों का अक्षय कोष है। इसी से सारे अवतार प्रकट होते हैं। इस छोटे से छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्य आदि योनियों की सृष्टि होती है। जैसे प्रभु के गुण असंख्य हैं, वैसे ही उनके नाम भी असंख्य हैं। उनका एक-एक नाम एक-एक गुण का वाचक है और ये सारे के सारे नाम उन्हीं एक परमात्मा के द्योतक हैं। वह तो केवल एक ही ईश्वर है। जैसे परमात्मा ने इस जगत की सृष्टि की और कर रहा है, इसीलिए उनका एक नाम ‘ब्रह्मा’ है-‘यो खिल जगन्निर्माणेन बृंहति वर्धयति स: ब्रह्मा।’
(जो सम्पूर्ण जगत् की निर्माण के द्वारा वृद्धि करे, उसका नाम ब्रह्मा है) ठीक उसी प्रकार परमात्मा सारे जगत् में व्याप्त है, इसलिए उनके सर्वव्यापकता-रूपी गुण के कारण उनको ‘विष्णु’ कहा जाता है- ‘वेवेष्टि व्याप्रोति चराचरं जगत् स विष्णु:’
अर्थात इस चराचर जगत में व्यापत होने के नाते परमात्मा को ‘विष्णु’ कहा जाता है। वे ही परमात्मा इस जगत का कल्याण भी करते हैं इसीलिए उनका एक नाम ‘शिव’ भी है। उसी परमात्मा के अनन्त गुण होने से उनके नाम भी अनन्त हैं। सारांशत: ये सभी नाम चाहे वे किसी भी देश-विदेश या भाषा में क्यों न हों, उसी एक के नाम और गुण के विषय में कहे गए, किन्तु ठीक ये ही बातें परमात्मा की पूजा के संबंध में भी हैं।
एक समय सरस्वती नदी के तट पर बहुत से ऋषि-महर्षि और तपस्वी एकत्रित थे। उनके बीच यह प्रसंग था कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों में श्रेष्ठ कौन है? इसका परीक्षण करने और निर्णय लेने का दायित्व भृगुजी पर छोड़ा गया। भृगुजी तीनों देवों से क्रमश: मिले और अपने-अपने व्यवहार में ब्रह्मा जी ने रुष्टता का, शिवजी ने क्रुद्धता का और विष्णु ने क्षमाशीलता का परिचय दिया। भृगुजी ने परीक्षण के उपरांत निर्णय लिया कि अशिष्ट व्यवहार पर भी जो क्षमाशीलता दिखलाए, उसे ही महान मानना चाहिए।
अत: भगवान् विष्णु महान हैं। भगवान विष्णु संसार का पालन करते हैं, तभी तो उन्होंने क्षमा का परिचय दिया इसीलिए इनमें विशेष सत्वगुण की प्रधानता है। इस प्रकार भृगृजी ने ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों महान विभूतियों का अलग-अलग परिचय पाकर ऋषि-महर्षियों को सूचित किया कि अपने-अपने गुणों के कारण ही विष्णु भगवान सर्वश्रेष्ठ हैं।