Edited By Niyati Bhandari,Updated: 14 May, 2021 01:13 PM
Vidur Niti: महात्मा विदुर ने अपने अनुभव को अधिकाधिक गहराई से यूं व्यक्त किया है: चक्षुसा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्वधम। प्रसादयति लोकं यस्तं लोकोऽ-नुप्रसीदति।। वि.नी. 2.25।। अर्थात राजा हो या प्रजा-कोई भी व्यक्ति दूसरों को प्रेममयी दृष्टि से, मानसिक...
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Vidur Niti: महात्मा विदुर ने अपने अनुभव को अधिकाधिक गहराई से यूं व्यक्त किया है: चक्षुसा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्वधम। प्रसादयति लोकं यस्तं लोकोऽ-नुप्रसीदति।। वि.नी. 2.25।।
अर्थात राजा हो या प्रजा-कोई भी व्यक्ति दूसरों को प्रेममयी दृष्टि से, मानसिक हित चिंतन से, मधुरवाणी से और सहायतापूर्ण कर्म से-चार प्रकार से प्रसन्न करता है उसे दूसरे लोग भी प्रसन्न करते हैं।
शुभकामना को अंग्रेजी में त्रशशस्र सवेच्छा कहते हैं। इसके व्यवहार से हम जैसी इच्छा (कामना) दूसरों के लिए करते हैं वैसी ही वह हमारे लिए करता है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि जब आप संबंधों को लोगों के प्रति कुछ शब्द कहकर ही नहीं, प्रत्युत दायित्व समझ कर उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हैं, उनसे सहयोग करते हैं, उनसे मधुरता का व्यवहार करते हैं, तो उस समय आपके आसपास के वातावरण में सकारात्मक संदेशों का संचार होता है। आपने इस बात पर ध्यान देने का यत्न किया कि कब कब आपको क्षणिक ही सही मुस्कराने-हंसने या गुनगुनाने का अवसर दिया तो तब न सही अब अवश्य उनके लिए आप कह उठेंगे धन्यवाद। यह प्रवृत्ति आपके लिए मानसिक-शारीरिक भावनात्मक सुरक्षा की उपहार सिद्ध होगी।
मनुहार की पारस्परिकता पर वैदिक ऋषियों ने अनवरत बल दिया है। अथर्ववेद (का. 19 सूक्त 52 मंत्र 41) द्वारा हमको सुन्दर सटीक सामयिक मार्गदर्शन सहज ही सुलभ होता है : कामेन मा काम आगन हृदयाद-हृदयं परि। यदमोषामदो मनस्तदैतूप मामहि।।
अर्थात कामना से कामना उत्पन्न होती है। यह एक हृदय से दूसरे हृदय के प्रति हुआ करती है। दूसरा व्यक्ति मुझे चाहता है तो मैं भी उसे चाहने लगता हूं। उसकी कामना ने मुझ में भी कामना को उत्पन्न किया है।
वस्तुत: अनुराग पारस्परिक ही हुआ करता है। जो विद्वान-मनीषी ज्ञानी जन हैं, उनका मन हमसे मिला रहे। शिक्षण संस्थान-गुरुकुल के आचार्य सदैव अपने शिष्य के साथ नहीं रह सकते। विद्यार्थी गण तो समावर्तन के बाद गृहस्थ के कर्तव्यों का पालन करने हेतु दूर-दूर बिखर जाएंगे, किन्तु शिष्यगण अपने आचार्य के मन से जुड़े रहेंगे, तो उनकी यही दीक्षा जीवन उपलब्धियों की दक्षता में परिलक्षित होती दिखाई देंगी। मन की कामनाओं का पारस्परिक संचरण आचार्य-शिष्य तक ही सीमित न रहकर संसार की अनेकश: भूमिकाओं में घटित होता है। पिता-पुत्र, माता-पुत्र, पुत्री, मित्र-मित्र, राजा-प्रजा, पति-पत्नी आदि अनेक क्षेत्रों में प्रभावी होता है।