धार्मिक मान्यताओं के वैज्ञानिक आधार जानना चाहते हैं तो 1 बार क्लिक ज़रूर करें

Edited By Jyoti,Updated: 27 Mar, 2020 05:33 PM

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लघुशंका अथवा दीर्घ शंका निवारण के दौरान मौन रखना धार्मिक एवं वैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
लघुशंका अथवा दीर्घ शंका निवारण के दौरान मौन रखना धार्मिक एवं वैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। धर्मशास्त्र के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से शौच-लघुशंका के समय बोलने-खांसने, हांफने आदि से मल के दूषित कीटाणु शरीर में प्रविष्ट होंगे तथा मलाशय शोधन के प्राकृतिक काम में अड़चन भी पड़ जाएगी, जो स्वास्थ्य के लिए परम घातक है।
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इसी प्रकार मार्ग में शौच या लघुशंका करना केवल सभ्यता के प्रतिकूल ही नहीं अपितु धर्मशास्त्र के विरुद्ध है। मनुस्मृति में लिखा है कि मनुष्य को मार्ग में, राख के ढेर में, गौशाला, हल जोते हुए खेत में, पानी में, चिता में, पर्वत पर, पुराने निर्जन मंदिर और बांबी में लघुशंका, शौचादि क्रिया नहीं करनी चाहिए। ये नियम नागरिक स्वास्थ्य, स्थानों की पवित्रता और जनसुरक्षा की दृष्टि से बनाए गए हैं।

जहां तक मल विसर्जन के बाद शुद्धि का संबंध है पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध व सभ्यता में पले, ऊंची शिक्षा की डींग मारने वाले यूरोपियन लोगों को पेशाब-टट्टी करने का सलीका बिल्कुल नहीं आता। शौचोपरांत वे मात्र दो-तीन कागज के टुकड़ों द्वारा गुदा को पोंछना ही आवश्यक समझते हैं यह गलत है। जल बिना मल की शुद्धि संभव नहीं। शौचोपरांत साबुन से हाथ धोने का फैशन भी हर जगह चल निकला है। यह भी गलत है क्योंकि साबुन में क्षार व स्निग्धता होती है। पित्त की प्रधानता के कारण मल के अंदर एक प्रकार का लेस, चिकनाई का सूक्ष्म अंश हाथ में लगा ही रह जाता है। यह अंश सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा देखा जा सकता है।
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उस लेस, चिकनाई को दूर करने के लिए मिट्टी जैसी क्षार तत्व वाली वस्तु ही उपयोगी होती है। हम लोग दैनिक जीवन में देखते हैं कि यदि कपड़े पर तेल का दाग पड़ जाता है तो वह साबुन से नहीं उतरता। शारीरिक शुद्धि में मिट्टी का उपयोग भारतीय ऋषियों की गौरवपूर्ण देन है जो सर्वसुलभ होते हुए भी अत्यंत गुणकारी है। वानस्पतिक तत्वों के सम्मिश्रण से मिट्टी में रोगों को दूर करने की अद्भुत क्षमता होती है।

इसके अलावा जानें क्यों हिंदू धर्म में पीपल को प्राप्त है इतना महत्व
वैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चला है कि पीपल ही एकमात्र ऐसा वृक्ष है जो रात-दिन प्रचुर मात्रा में जीवनोपयोगी आक्सीजन का विसर्जन करता है। इसकी छाया सर्दी में उष्णता प्रदान करती है तथा गर्मी में शीतलता देती है। विष्णु को जगत का पालक कहा है। पीपल प्राणवायु प्रदाता है अत: स्वत: ही जगत का पालक सिद्ध है। निरंतर अनुसंधानों द्वारा यह भी सिद्ध हुआ है कि पीपल के पत्तों से संस्पृष्ट वायु के प्रवाह और ध्वनि से बीमारी के संक्रामक कीटाणु धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। वैद्यक ग्रंथों के अनुसार इसके पत्ते, फल, छाल, सभी रोग नाशक हैं। रक्त-विकार, कफ, पित्त, दाह वमन, शोथ, अरुचि, विष-दोष, खांसी, विषम-ज्वर, हिचकी, उर:क्षत, नासारोग, विसर्प, कृमि, कुष्ठï, त्वचा, वर्ण, अग्निदग्धवर्ण, बागी आदि अनेक रोगों में इसका उपयोग होता है।
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