हिंदू धर्म के रीति-रिवाज़ों से विज्ञान का क्या है संबंध?

Edited By Jyoti,Updated: 21 Jan, 2020 09:59 AM

what is the relation of science with the customs of hinduism

प्राचीन समय से ही भारत परम्पराओं, रीति-रिवाजों और संस्कृति का देश रहा है। वास्तव में भारत धर्म, मानव सभ्यता के विकास और नैसर्गिक सम्पदा को संरक्षण देने का आधार स्तंभ है।

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
प्राचीन समय से ही भारत परम्पराओं, रीति-रिवाजों और संस्कृति का देश रहा है। वास्तव में भारत धर्म, मानव सभ्यता के विकास और नैसर्गिक सम्पदा को संरक्षण देने का आधार स्तंभ है। हमारी संस्कृति में जितने भी अनुष्ठान और रीति-रिवाज हैं, उन सभी का आधार कहीं न कहीं वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित हैं। धर्म को सूक्ष्मता से जानने का यदि प्रयास करें तो धर्म का मूल अर्थ जो धारण किया जाए वही धर्म है। हमारे प्रत्येक रीति-रिवाज, धार्मिक या किसी भी संस्कार योग्य कार्य का कोई न कोई वैज्ञानिक कारण है। इन मान्यताओं एवं आस्थाओं का वैज्ञानिक आधार हमारे महर्षियों द्वारा पूर्व में अनुसंधान द्वारा निर्धारित किया जा चुका है।

गाय माता का स्वरूप
भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से ही गाय को माता का स्थान दिया गया है। गोमूत्र, दूध व गोबर को पवित्र और शुद्ध माना जाता है। गाय के दूध, गोबर और गोमूत्र को अनेक असाध्य रोगों के चिकित्सा कार्यों में औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। आज इसकी पुष्टि वैज्ञानिकों ने भी कर दी है कि गाय के दूध में प्रोटीन एवं अनेक विटामिन्स अन्य दूध की अपेक्षा अधिक हैं। इस दूध में यकृत एवं प्लीहा के रोगों को दूर करने की क्षमता सामान्य से अधिक रहती है। इसी प्रकार हर शुभ कार्य का प्रारंभ गोबर लीपने से प्रारंभ होता है। वैज्ञानिकों ने माना कि गोबर में कीटाणुनाशक फास्फोरस तत्वों की अधिकता है। इसी क्रम में गाय से प्राप्त पांचों सार अर्थात दूध, घृत, दही, गौमूत्र और गोबर के सम्मिश्रण पंचद्रव्य को अमृत रूप में सनातन मान्यता प्रचलित है।
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ब्रह्म मुहूर्त
रात्रि का आखिरी प्रहर ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। यह सूर्योदय से ठीक पूर्व का समय होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह सबसे अच्छा मुहूर्त माना जाता है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस समय वायुमंडल में प्रदूषण सबसे कम और वायु में आक्सीजन की मात्रा सर्वाधिक होती है। स्वास्थ्य के पक्ष  से यह वायु सर्वोत्तम मानी गई है। यही वजह है कि इस समय उठकर घूमने  से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर और मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है।

जनेऊ धारण करने का वैज्ञानिक आधार
हिंदू धर्म में पहले के समय की बात करें तो शिक्षा ग्रहण करने से पहले यज्ञोपवीत होता था। पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया जाता था। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों का तथा विवाहोपरांत छह धागों का जनेऊ धारण किया जाता है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। आयुर्वेद के अनुसार, यज्ञोपवीत धारण करने से व्यक्ति की उम्र लम्बी, बुद्धि तेज और मन स्थिर होता है। इससे व्यक्ति बलवान, यशस्वी, वीर और पराक्रमी होता है। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसें जिनका संबंध पेट की आंतों से है, आंतों पर दबाव डाल कर उनको पूरा खोल देती हैं जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देता है, जिससे कब्ज, एसीडिटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता, जब तक वह हाथ-पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सर्वाधिक लाभ हृदय रोगियों को होता है।
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पीपल के वृक्ष की पूजा
ज्योतिष शास्त्र और हिन्दू धर्म में पीपल के पेड़ की पूजा का विधि-विधान है। पीपल के पेड़ के बारे में वैज्ञानिक अनुसंधान यह कहते हैं कि यह एकमात्र वृक्ष है जो दिन और रात दोनों समय में आक्सीजन का विसर्जन करता है। यह वातावरण /वायुमंडल को शुद्ध करने का कार्य करता हैं। आयुर्वेद में भी पीपल के पत्ते, छाल एवं फल सभी रोगनाशक बताए गए हैं। पीपल के वृक्ष का प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में प्रयोग होता हैं। ज्योतिष शस्त्र के अनुसार पीपल के पेड़ की पूजा-उपासना से शनि जनित दोषों का शमन होता है। लाल किताब के अनेक टोटकों में भी पीपल के पेड़ का प्रयोग किया जाता है।

तुलसी का पौधा
भारतीय संस्कृति में तुलसी के पौधे का बहुत महत्व है और इसे बहुत पवित्र माना जाता है। यही कारण है कि इसे घर के आंगन में स्थान दिया गया है। इसके पौराणिक महत्व और औषधीय महत्व को देखते हुए इसे देवी का दर्जा दिया गया है। देवताओं को अर्पित भोग प्रसाद बिना तुलसी पत्र के नहीं चढ़ता है। मरणासन्न प्राणी को अंतिम समय में गंगाजल के साथ तुलसी पत्र दिया जाता है। तुलसी का पौधा एक दिव्य औषधीय पौधा है। इसमें असाध्य एवं संक्रामक बीमारियों को रोकने की क्षमता है। तुलसी की मंजरियों की विशेष खुशबू से विषधर सांप नहीं आते। वैज्ञानिकों के अनुसार तुलसी का पौधा अपने आयुर्वैदिक गुणों के कारण अपना विशेष महत्व रखता है। प्रतिदिन चार पत्तियां तुलसी की सुबह खाली पेट ग्रहण करने से मधुमेह, रक्त विकार, वात, पित्त आदि दोष दूर होने लगते हैं। मां तुलसी के समीप आसन लगाकर यदि प्रतिदिन कुछ समय बैठा जाए तो श्वास के रोग, अस्थमा आदि से जल्दी छुटकारा मिलता है। घर में तुलसी के पौधे की उपस्थिति एक वैद्य समान तो है ही, यह वास्तु दोष भी दूर करने में सक्षम है। इसका उपयोग सर्दी, जुकाम, खांसी, दंत रोग और श्वास संबंधी रोग में अत्यंत लाभदायक है।
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मूर्ति पूजा
हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा का विधि-विधान है। यह माना जाता है कि चंचल मन को एकाग्रचित रखने के लिए साक्षात साकार रूप की धारणा को महत्व दिया गया है। उन्नति, ज्ञान और सन्मार्ग तक पहुंचने के लिए मन सुस्थिर होना आवश्यक है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए ईश्वर के साकार रूप की पूजा-उपासना को सबसे सहज मार्ग कहा गया है। जैसे माता के चित्र को देखकर वात्सल्य की भावना स्वत: ही जागृत हो जाती है। माना जाता है कि मूर्ति पूजा तो बीज है, जब बीज से अंकुरण हो जाता है तो बीज स्वत: ही मिट जाता हैं। बीज जब मिटता है तभी तो अंकुरण होगा, मूर्ति में नारायण को देखने के बाद मूर्ति का अस्तित्व नहीं रहता हैं। नारायण की प्राप्ति के लिए मूर्ति पूजन मार्ग (साधन) का कार्य करती है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जैसे किसी घर की छत पर जाने के लिए सीढ़ी सहज मार्ग है उसी प्रकार मूर्ति की उपासना ईश्वरीय शक्ति तक पहुंचने का सहज मार्ग है। —ज्योतिष आचार्य रेखा कल्पदेव

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