जो खुद का मित्र नहीं, वह किसी का मित्र नहीं

Edited By Punjab Kesari,Updated: 08 Jan, 2018 10:31 AM

who is not a friend of himself will not

जिंदगी में बहुत सारे मौके आते हैं जब हम बुरे हालात का सामना करने के लिए विवश होते हैं। तब हर किसी को पहले भगवान याद आते हैं। भले तत्काल संकट से निजात न मिले लेकिन हमें तसल्ली होती है कि कोई है मेरे साथ।

जिंदगी में बहुत सारे मौके आते हैं जब हम बुरे हालात का सामना करने के लिए विवश होते हैं। तब हर किसी को पहले भगवान याद आते हैं। भले तत्काल संकट से निजात न मिले लेकिन हमें तसल्ली होती है कि कोई है मेरे साथ। यह विश्वास ही है जो हमेशा आपका साथ निभाने के लिए तैयार रहता है। इस विश्वास के साथ हमारी ऐसी मित्रता है कि हम चाहकर भी अलग नहीं हो सकते। इसे हम अध्यात्म की भाषा में सखा-भाव कहते हैं। कृष्ण भले संसार के लिए भगवान हों लेकिन अपने मित्रों और गोपियों के लिए तो वे सिर्फ सखा हैं। वह ऐसे मित्र हैं जो न केवल दुख हरते हैं, बल्कि खुशी भी सुनिश्चित करते हैं। उनकी मित्रता की कहानियां आज भी जगह-जगह सुनी और सुनाई जाती हैं। 

 

आज मुश्किल यह है कि हमने विश्वास से ज्यादा संशय को महत्व दे दिया है। यह इसलिए कि हम हर रोज नए-नए दोस्त बनाते हैं और मामूली-सी बात हुई नहीं कि दोस्ती तोड़ देते हैं। मित्र बनाने की हड़बड़ी तो होती है लेकिन निभाने की खूबी हममें नहीं होती। सोशल मीडिया पर आज जो हो रहा है, वह इसका एक बड़ा सबूत है। हर आदमी के दोस्तों की संख्या सैंकड़ों में हो गई है लेकिन जैसे ही विचार आपस में टकराने लगते हैं, आप नफरत के भाव से भर जाते हैं। अगर इसके पीछे सुसंगत तर्क हो तो मतलब समझ में आता है लेकिन यहां सिर्फ अहं का टकराव होता है।

 


इसलिए इस बात की समझ विकसित करनी चाहिए कि आप जीवन में दो तरह के दोस्त बन और बना सकें तो उससे अच्छी और कोई बात नहीं होगी। इसे आजमाने की जिम्मेदारी हमारी है। हमें अपनी जिम्मेदारी से नहीं भागना चाहिए। जिसने भी इस अवधारणा की रचना की है, वह जरूर कोई विचारक या व्यवहारवादी होगा। इनमें से अगर किसी एक का भी चयन करते हैं तो आप अपने मित्र भी बन जाएंगे।

 


दोस्त कृष्ण की तरह होना चाहिए जो आपके लिए लड़ेगा नहीं, पर यह सुनिश्चित करेगा कि आप ही जीतेंं। दूसरा कर्ण की तरह हो, जो आपके लिए तब भी लड़ेगा, जब आपकी हार सामने दिख रही हो। क्या मित्रता या दोस्ती का इससे बड़ा कोई उदाहरण ढूंढा जा सकता है। आपके साथ कृष्ण हों या कर्ण, आप कभी जीवन में निराश नहीं हो सकते लेकिन तब आपको भी खुद वैसा ही बनना पड़ेगा। हमें समझना चाहिए कि हमारी मैत्री को स्थायी आधार तभी मिल सकता है जब हमारी अपने साथ मैत्री सुप्रतिष्ठित हो चुकी हो। जो अपना मित्र होगा, वह हर किसी का मित्र होगा। जो अपना मित्र नहीं है, वह किसी का मित्र नहीं हो सकता।

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