Edited By Jyoti,Updated: 07 Aug, 2019 05:34 PM
अब श्री कृष्ण की लीलाओं से भला कौन वाकिफ़ नहीं है। हर कोई जानता है इन्हें अपने बाल्यकाल में तो लीलाएं की हैं बल्कि इन्होंने अपनी युवास्था में भी समय-समय पर अपनी लीलाएं दिखाई हैं।
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अब श्री कृष्ण की लीलाओं से भला कौन वाकिफ़ नहीं है। हर कोई जानता है इन्हें अपने बाल्यकाल में तो लीलाएं की हैं बल्कि इन्होंने अपनी युवास्था में भी समय-समय पर अपनी लीलाएं दिखाई हैं। यहीं कारण है श्रीकृष्ण को लीलाधर, लीलामय आदि बोलते हैं। मगर हर कोई यह बात अच्छे से जानता है कि इनकी हर लीलाके पीछा कोई न कोई कारण छिपा होता था। श्री कृष्ण की हर एक गतिविधि में आकस्मिकता छिपी है। शास्त्रों को पढ़न पर पता चलता है उनके द्वारा लिया हर निर्णय अक्सर असहज कर देने वाले होते हैं। उनका पूरी जीवन चौंकाने वाला है। कहीं न कहीं माना जाता है कि संपूर्ण मानव जाति का सर्वाधिक भला श्रीकृष्ण ने ही किया है जिसमें कोई संदेह नहीं है।
भगवान कृष्ण का बाल स्वरूप इतना मनभावन है कि ये किसी को भी क्षण भर में प्रभावित कर दे। तो वहीं उनका स्वरूप किशोरवय प्रेम की अगाध गाथाओं से भी परिपूर्ण है और उनका वयस्क जीवन एक संपूर्ण राजनीतिज्ञ की चालों से भरा दिखता है। इन सब बातों से पता चलता है कि श्रीकृष्ण के जीवन का हर एक पहलू प्रभावित करने वाला है परंतु महाकवि सूरदास आख़िर क्यों उसी श्रीकृष्ण के राजनीतिज्ञ स्वरूप को बयां करना क्यों छोड़ देते हैं?
अब इस पर सवाल उठने तो लाज़मी है, क्योंकि एक ऐसे कवि जिन्होंने अपनी समस्त रचनाओं में कृष्ण के बाल स्वरूप के साथ-साथ उनके प्रेमी स्वरूप का भी उल्लेख किया हो किंतु उन्होंने द्वारकाधीश के क्रिया-कलापों का उल्लेख करना बिल्कुल ज़रूरी नहीं समझा।
तो बता दें वो इसलिए क्योंकि सूरदास जी को श्रीकृष्ण का राजनीतिज्ञ स्वरूप बिल्कुल नहीं सुहाया इसलिए वो कहीं भी उनके इस स्वरूप की चर्चा नहीं करते। हालांकि राजनीतिज्ञ कृष्ण एक प्रतिमान स्थापित करते हैं, जीवन के संघर्षों को पाने की प्रेरणा देते हैं, हर कठिनाई में भी कर्तव्य के पालन को बढ़ावा देते हैं, युद्ध भूमि में विवेकवान बने रहने की शिक्षा देते हैं, फिर भी महाकवि को इस रूप से क्यों होती है विरक्ति?
वो इसलिए क्योंकि श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप अति स्नेहमय और ममतापूर्ण है। उनकी शरारतें निश्छल हैं, उनकी हर बाल गतिविधि पर क्रोध की बजाए प्रेम उमड़ता है। यही कारण है महाकवि पूरी तरह से श्रीकृष्ण की बाल लीलालों में डूबे नज़र आते हैं। बल्कि वो इस कदर उसमें खोए हुए हैं कि वो छलिया श्रीकृष्ण की भूमिका को बर्दाश्त ही नहीं कर पाते।
अब देखा जाए तो महाकवि की ये पीड़ा गलत भी नहीं है। जिसने अपने उपास्य की बाल सुलभ निर्दोष लीलाओं को इतनी गहराई से महसूस किया हो वो उनके परिपक्व, छल-छद्म से भरपूर स्वरूप को कैसे झेल सकता है।