Edited By Jyoti,Updated: 20 Sep, 2019 05:36 PM
ऋषि आरुणि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को बड़ी उम्मीदों से गुरुकुल भेजा। वहां श्वेतकेतु पूरे मनोयोग से शिक्षा ग्रहण करने लगा।
शास्त्रों की बात, धर्म के साथ
ऋषि आरुणि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को बड़ी उम्मीदों से गुरुकुल भेजा। वहां श्वेतकेतु पूरे मनोयोग से शिक्षा ग्रहण करने लगा। धीरे-धीरे उसकी कीर्ति फैलने लगी। बड़े-बड़े विद्वान भी उसकी दृष्टि की बारीकी देख दांतों तले उंगलियां दबा लेते थे। दिन बीतते गए और फिर वह दिन भी आया जब श्वेतकेतु गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूर्ण कर घर लौट आया। आरुणि ने प्रसन्नतापूर्ण अपने पुत्र का स्वागत किया। दो-तीन दिन बाद एक सुबह पिता आरुणि उद्दालक ने श्वेतकेतु से कहा, ''पुत्र, क्या तुम अभी और वेदाभ्यास करने के इच्छुक हो या उपयुक्त कन्या से विवाह करके गृहस्थ जीवन शुरू करोगे?”
पिता की बात सुनकर श्वेतकेतु बोला, “मुझे नहीं लगता कि मेरे गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का समय अभी आया है।“
“क्यों पुत्र, अब क्या शेष रह गया है?”
इस पर श्वेतकेतु ने कहा, “मेरा ज्ञान गुरुकुल में साथ वेदाभ्यास करने वाले सहपाठियों ने देखा है, लेकिन दुनिया ने अभी नहीं देखा। मैं चाहता हूं कि दुनिया भी मेरे ज्ञान से परिचित हो जाए। यह तभी होगा जब मैं राजा जनक की सभा को जीत लूंगा। इससे पहले विवाह करना मेरे लिए उचित नहीं होगा।“
पुत्र के मुंह से ऐसा सुन ऋषि बिना कुछ बोले वहां से उठ गए। श्वेतकेतु भी अपनी मस्ती में वहां से निकल गया। श्वेतकेतु की मां को एहसास हो गया कि कोई बात है जो ऋषि को परेशान कर गई। श्वेतकेतु के जाने के बाद वह उनके पास आई और उनसे पूछा, “श्वेतकेतु अभी और विद्याभ्यास करना चाहता है, इसमें क्या गलत है? आप परेशान क्यों हैं?”
ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु ने वेदों का अभ्यास चाहे जितना भी किया हो, वेदों के मर्म से वह बिल्कुल अछूता है। विद्या अगर अहंकारयुक्त महत्वाकांक्षा को बढ़ाती है तो वह विद्या हो ही नहीं सकती। श्वेतकेतु को पहले विद्या की पात्रता हासिल करनी होगी तभी वह वेदों के मर्म तक पहुंचेगा।“