यजुर्वेद: लंबी उम्र की चाह रखने वाले करें ये काम

Edited By Jyoti,Updated: 26 May, 2018 02:35 PM

yajurveda shloka and meaning

इस धरती पर ज्यादातर प्राणी समूह बनाकर ही चलते हैं। समूह बनाकर चलने की प्रवृत्ति अपनाने से मन में सुरक्षा की भावना पैदा होती है। मानव का जिस तरह का दैहिक जीवन है उसमें तो उसे हमेशा समूह बनाकर चलना ही चाहिए। जिन लोगों में कम ज्ञान होता है

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इस धरती पर ज्यादातर प्राणी समूह बनाकर ही चलते हैं। समूह बनाकर चलने की प्रवृत्ति अपनाने से मन में सुरक्षा की भावना पैदा होती है। मानव का जिस तरह का दैहिक जीवन है उसमें तो उसे हमेशा समूह बनाकर चलना ही चाहिए। जिन लोगों में कम ज्ञान होता है वह जानते हैं कि उन्हें समूह में ही सुरक्षा मिलगी। इसलिए प्राचीन समय में धरती पर मनुष्य सीमित संख्या में थे तब वह अन्य जीवों से अपनी प्राण रक्षा के लिए हमेशा ही समूह बनाकर रहते थे। 
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जैसे-जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ी वैसे अहंकार के भाव ने भी अपने पांव पसार लिए। अब हालात यह है कि राष्ट्र, भाषा, जाति, धर्म और वर्णों के नाम पर अनेक समूह बन गए चुके हैं। उनमें भी ढेर सारे उप समूह हैं। इन समूहों का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वह अपने स्वार्थ के लिए सामान्य सदस्यों का उपयोग करते हैं। आधुनिक युग में भी अनेक मानवीय समूह नस्ल, जाति, देश, भाषा, धर्म के नाम पर बने तो हैं पर उनमें संघभाव कतई नहीं है। संसार का हर व्यक्ति समूहों का उपयोग तो करना चाहता है पर उसके लिए त्याग कोई नहीं करता। यही कारण है कि पूरे विश्व में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में भारी तनाव की स्थिति है-
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यजुर्वेद में कहा गया है कि-

श्लोक- 
सम्भूर्ति च विनाशं च यस्तद्वेदोभयथ्सह।
विनोशेन मृतययुं तीत्वी सम्भूत्यामृत मश्नुते।।

भावार्थ- जो संघभाव को जानता है वह विनाश एवं मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो उसे नहीं जानता वह हमेशा ही संकट को आमंत्रित करता है।


श्लोक-
वाचमस्तमें नि यच्छदेवायुवम्।

भावार्थ- हम ऐसी वाणी का उपयोग करें जिससे सभी लोग एकत्रित हों।
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हृदय में संयुक्त या संघभाव धारण करने का यह मतलब नहीं होता कि हम अपने समूह या समुदाय के लोगों से त्याग और प्रेम की आशा रखें लेकिन खु़द समय आने पर उनका साथ छोड़ दें। हमारे देश में संयुक्त परिवारों की वजह से सामाजिक एकता का भाव पहले तो था पर अब सीमित परिवार, भौतिकता के प्रति अधिक झुकाव तथा स्वयं के पूजित होने के भाव ने एकता की भावना को कमज़ोर कर दिया है। हमने उस पाश्चात्य संस्कृति और व्यवस्था को प्रमाणिक मान लिया है जो प्रकृति के विपरीत चलती है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के क्रम में चलता जबकि पश्चिम में राष्ट्र, समाज, परिवार और व्यक्ति के क्रम पर आधारित है। हालांकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन यह भी मानता है कि जब व्यक्ति स्वयं अपने को संभालकर बाद समाज के हित के लिए भी काम करे तो वही वास्तविक धर्म है। कहने का अभिप्राय है कि हमें अपनी ख़ुशी के साथ ही अपने साथ जुड़े लोगों के हित के लिए भी काम करना चाहिए।
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