Edited By Riya bawa,Updated: 03 Sep, 2019 01:03 PM
दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ...
नई दिल्ली (मनीष राणा): दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव का चुनाव इतना बड़ा हो चुका है कि इसे देश की छात्र राजनीति को दिशा देने वाला माना जाने लगा है। ऐसे में जहां देशभर की नजरें इस चुनाव पर लगी रहती हैं तो दूसरी तरफ सक्रिय राजनीतिक दल भी इसमें अपने छात्र संगठन की जीत के लिए पूरी सक्रियता दिखाते हैं।
यहीं कारण है कि आज डूसू का चुनाव इतना बढ़ा हो चुका है कि बिना छात्र संगठन के किसी प्रत्याशी द्वारा इसे अपने बलबूते जीतना बहुत मुश्किल हो गया है। हालांकि डूसू में निर्दलीय के जीतने की परंपरा भी नहीं रही है, मगर फिर भी समय-समय पर निर्दलीय प्रत्याशी जीतते रहे हैं। मगर वर्ष 1991 के बाद कोई पूर्ण रूप से निर्दलीय प्रत्याशी का खाता तक नहीं खुला है। हालांकि इसके बाद हालांकि जब लिंगदोह का मुद्दा आया तो 2009में अध्यक्ष पद पर मनोज चौधरी ने निर्दलीय के रूप में जीत दर्ज की थी, मगर लिंगदोह के चलते एबीवीपी का पूरा पैनल कैंसल होने पर वह एबीवीपी समर्थित चुनाव लड़े थे।
पूरी दिल्ली में फैला क्षेत्र, विधानसभा बराबर वोटर
निर्दलीय के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि वह चुनाव के लिए हर जगह प्रचार भी नहीं कर पाता है। डूसू चुनाव के लिए डीयू से सम्बद्ध 52 कॉलेजों और विभागों में मतदान होता है। इतने बड़े स्तर पर चुनाव होने से वोटरों की संख्या भी एक विधानसभा के वोटरों के बराबर होती है। हर कॉलेज में प्रत्याशी के लिए जाना बहुत मुश्किल होता है। जबकि हर छात्र संगठन की कॉलेज इकाई होती है, जिसका लाभ संगठन के प्रत्याशी को मिलता है, जबकि निर्दलीय के साथ ऐसा नहीं होता है।