आटिज्म जैनेटिक नहीं मैडीकल समस्या, इलाज संभव (PICS)

Edited By ,Updated: 03 Dec, 2015 04:00 PM

autism is genetic medical problem curable

आटिज्म पिछले कुछ दशकों से एक गंभीर समस्या बनी हुई है। अमरीका में यह अनुपात 1975 से पहले 5 हजार बच्चों में से एक बच्चा था जो 2015 में पहुंचते-2 50 बच्चों के पीछे एक हो गया- 40 सालों में 100 गुना ज्यादा बढ़ौतरी।

आटिज्म पिछले कुछ दशकों से एक गंभीर समस्या बनी हुई है। अमरीका में यह अनुपात 1975 से पहले 5 हजार बच्चों में से एक बच्चा था जो 2015 में पहुंचते-2 50 बच्चों के पीछे एक हो गया- 40 सालों में 100 गुना ज्यादा बढ़ौतरी।

एक खोज के अनुसार,  अमरीका में प्रत्येक वर्ष इन बच्चों की गिनती में 10-17 की बढ़ौतरी हो रही है। जबकि भारत में इन बच्चों की संख्या कहीं ज्यादा है। भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार 2.4 मेल और 2.0 फीमेल एक या एक से ज्यादा किस्म के अपंगता के शिकार है। उत्तरी भारत में इन बच्चों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। हर एक शहर और छावनी में इन बच्चों के लिए सेंटर खुल गए है। प्रत्येक सेंटर में इन बच्चों की संख्या 30-50 है। ये आंकड़े गंभीर रूप से प्रभावित बच्चों के है जबकि कम समस्या वाले बच्चों को अनदेखा किया गया है। 

अटिज्म के मुख्य लक्षणः 

यह बच्चे अपने आप में मस्त रहते है, हड़बड़ाहट, इधर-उधर घूमते रहते हैं, आंखों से आंखें मिलाकर बात नहीं करते, दूसरों की बातों में ध्यान ना देना, बार-बार सूंघना, बिना मतलब हंसना-रोना, एक ही हरकत को बार-बार करना, हाथों को हिलाना, उछलते-कूदते रहना, इनकी समझ कम होती है या बातों का जवाब नहीं दे सकते, खिलौने को फेंकते हैं या तोड़ते हैं, बहुत ज्यादा हाईपर होते है, दूसरों से व्यवहार अच्छी तरह नहीं करते आदि।

आधूनिक चिकित्सा प्रणाली, आक्यूपैशनल थरैपिस्ट, साईकोलोजिस्ट मनोविज्ञानिक, स्पैश्ल एजुकैटर व स्किल ट्रैनर और बिहेवियर यरैपिस्ट के अनुसार, यह जिनैटिक डिफैक्ट के कारण एक मानसिक बीमारी है, जिसके कारण यह जिंदगी भर इसी बीमारी से पीड़ित रहेंगे। मां-बाप को यही सिखाया या बताया जाता है कि इन बच्चों के स्वभाव, गुस्सा या कुछ खास तरह की ट्रेनिंग देकर बच्चे को थोड़ा बहुत अपने लायक बनाया जा सकता है, जबकि इनकी मुख्य बीमारी ऐसे ही रहेगी। 

बाबा फरीद सैंटर फाॅर स्पैशल चिल्ड्रन के पिछले 12 सालों के तजरबे के मुताबिक, हमने देखा है कि जो बच्चे बोल नहीं सकते थे वो बोलने लग गए। कुछ अपनी सामान्य जिंदगी में आने लगे, आम बच्चों की तरह खेलने-कूदने लगे। कुछ सामान्य बच्चों के स्कूलों में जाने लगे। अगर हम आधुनिक चिकित्सा प्रणाली की मानें तो हमें इन बच्चों में जो सुधार मिला, उसे भूल जाना होगा और अगर इन बच्चों में आए सुधारों को देखें तो हमें मैडीकल साइंस की दी गई परिभाषा को फिर से जांचना होगा। 

मौजूदा  मैडीकल साइंस के अनुसार, ये जन्मजात और जैनेटिक नुक्स माना जाता है पर सभी वैज्ञानिक इस दलील से सहमत नहीं है। वे निम्नलिखित दलीलें देते हैं:-

1. इन बच्चों के जीन जब टेस्ट किए जाते हैं तो इनमें सिर्फ 10-15 बच्चे ही किसी जैनेटिक समस्या का शिकार होते है, बाकी बच्चों में ऐसा कोई नुक्स नहीं मिलता।

2. इस विषय से जुडे हुए डॉक्टर, मनौविज्ञानिक व विज्ञानिकों से आटिज्म के शिकार बच्चों के बारे में जब केस हिस्टरी, ब्ंेमभ्पेजवतलद्ध लिया गया तो 70-75 फीसदी बच्चे ऐसे थे जो 3 माह से लेकर 1 या 2 साल तक अपनी नार्मल प्रकिया में बढ़ रहे थे लेकिन धीरे-धीरे वो आटिज्म की पकड़ में आने लगे और साढे 3 साल की उमर में इन 70-75  फीसदी बच्चों में यह सभी लक्षण आ चुके थे जब कि जिनैटिक विशेषज्ञों के अनुसार, आटिज्म के शिकार बच्चों का दिमाग जन्म से पूर्व ही मां के पेट के अन्दर ही विकरित हो जाता है लेकिन ताजा आंकड़ों के अनुसार, 80 फीसदी आटिज्म से ग्रसित बच्चे अपनी शुरूआती दौर में 1 से 2 साल तक नार्मल प्रक्रिया में बढ़ रहे थे लेकिन धीरे-धीरे आटिज्म की गिरफ्त में आ गए, यहां तक कि जो 10 फीसदी आटिज्म के शिकार बच्चे जिनैटिक डिसआर्डर जैसे थ्तंहपसम.ग् या त्मक ैलदकतवउम इनके बारे में भी जिनैटिक विशेषज्ञ एक स्थाई परिभाषा नहीं दे सके कि बच्चा कितना विकास करेगा जैसे ैचममबी होगी या नहीं होगी, क्या-क्या लक्ष्ण होंगे। यहां तक कि कुछ खोज पत्र बताते है कि कुछ आटिज्म के शिकार बच्चे जो थ्तंहपसम.ग् या त्मजज ैलदकतवउम के शिकार थे उनमें से कुछ बच्चे ऐसे थे जो अपनी रोजमर्रा सामान्य जिंदगी बिताने के करीब थे।

3. सिर्फ 25-30 फीसदी बच्चों में ही आटिज्म के लक्षण जन्म से होते है, बाकी 70-75 फीसदी बच्चे 1-2 साल तक ठीक रहते हैं, इसके बाद इनमें आटिज्म के लक्षण आने लगते हैं, स्पष्ट है अगर जीन की समस्या होती शुरूआती दौर से ही बच्चों में आटिज्म के लक्षण होते।

4. जब बच्चे बीमार हो जाते हैं। उनको जब एन्टीबायटिक या स्टीरायड्स दिए जाते हैं तो ये बच्चे काफी अजीब तरह का व्यवहार करने लगते है लेकिन जैसे ही ये बच्चे ठीक होते है, थोड़े समय बाद धीरे-धीरे यह ठीक व्यवहार करने लगते है। अगर ये जीन्स की समस्या होती तो इन दवाओं से इनके ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ना था।

यहां तक कि ’’डीफीट आटिज्म नाउ’’ दुनिया का सबसे बड़ा विज्ञानिकों का समूह है जो लगातार आटिज्म पर खोज कर रहा है। इस समूह के अनुसार, सिर्फ 25 फीसदी बच्चे ही जिनैटिक के कारण आटिज्म के शिकार है। बाकी 75 फीसदी बच्चे वातावरण व गर्भ काल के दौरान गड़बड़ियां या प्रसव काल के दौरान गड़बड़ियां व बच्चे के शुरूआती जीवन में रोग प्रतिरोधक शक्ति का कम होने के कारण, बार-बार एंटीबाईयोंटिक्स या सटिरोईड का इस्तेमाल, कुपोषण व भोजन में जरूरी पोष्क तत्वों की कमी, टीकाकरण में इस्तेमाल होने वाला पारा, जो दिमाग की कोशिकाओं की संरचना को बदल देता है व इन वैक्सिनस के अन्दर लाइव वाइरस जो आटो-इमयुनिटी उत्पन्न करता है, जिससे पाचन प्रणाली व रोग प्रतिरोधक शक्ति खत्म हो जाती है। यह मुख्य कारण आटिज्म होने के जिम्मेदार है। 

इस ग्रुप के अनुसार, आटिज्म को लाईलाज बीमारियों की लिस्ट से बाहर निकालकर ईलाज योग्य लिस्ट में शामिल कर लेना चाहिए। मैडीकल साइंस में आज तक यही धारणा रही है कि जीनस एक ऐसी चीज है जो स्थिर है, जिनकी कार्य प्रणाली को बदला नहीं जा सकता इसलिए जिनैटिक डिसआर्डर का ईलाज भी असम्भव है पर पूरी दूनिया में हुए कुछ ताजा खोजों ने जिनैटिक साइंस की इस धारणा को गलत ठहराया है अब बहुत से वैज्ञानिक इस बात से सहमत है कि अकेले जीन्स आटिज्म नहीं करते हैं। वे इस समस्या को समझने के लिए बन्दुक की उदाहरण देते हैं कि जीन्स सिर्फ बन्दुक लोड करते हैं उसको चलाने का काम तो वातावरण करता है, अगर जीन्स के आस-पास खतरनाक रसायन मौजूद है तो अच्छे/सेहतमन्द जीन्स भी ठीक तरह से काम नहीं कर सकते। इसके उल्ट अगर जीन्स के आस-पास जहर ना हों व बढ़िया रसायन मौजूद हो तो खराब/बीमार जीन्स भी अच्छी तरह से काम कर सकते है। जीन्स के आस-पास के वातावरण की सृजना के लिए जहां हवा, पानी और भोजन में जहरिले रसायन जिम्मेदार हैं वहीं पोषक तत्वों की कमी और शरीर के अन्दरूनी बीमार अंग (जैसे- फेफड़े, लीवर, आंतड़ियां की इन्फेक्शन) भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। 

आटिज्म पर काम करने वाले ज्यादातर वैज्ञानिक यह मानते है कि शरीर में रसायनों का असंतुलन का कारण हवा, पानी और खाने में मौजूद जहर है, इन जहरों में मुख्य कीटनाशक, रसायनिक खादें, प्लास्टिक के बीच में जहर आदि। यह जहर मां-बाप की प्रजनन कौशिका के ऊपर बूरा प्रभाव डालते हैं व मां के पेट में पल रहे बच्चे तक पहुंच जाते है व उसके कोमल नाड़ी तंत्र, और अंगों या जीन्स के ऊपर बूरा प्रभाव डालते हैं। बचपन में लगने वाले वैकसीन भी शक के दायरे में है इनमें कुछ खतरनाक जहर व वायरस भी आटिज्म का करण बन सकते हैं। बहुत सारे पोषक तत्वों की कमी के कारण भी आटिज्म जैसे लक्षण आ सकते है। जैसे- जिंक, विटामिन ए, बी, सी, डी, फोलिक ऐसिड, गलूटाथायन, कुछ अमायनो एसिड्स, कुछ मिनरलस और एंटिआक्सीडेंट आदि। इसी तरह अगर बच्चों में रोग प्रतिरोधक शक्ति कम हो जाये या कब्ज आन्तड़ियों की सोजस, बार-बार दस्त लगने के कारण भी पोषक तत्वों की कमी और बढ़ जाती है जिससे बच्चा बार-बार बीमार पड़ता है और एंटीबायोटिक्स दवाओं का बार-बार प्रयोग करना पड़ता है, जिस कारण आन्तड़ियों के बीच में दोस्त किटाणुओं की कमी हो जाती है और दुश्मन बैकटीरिया जैसे- फंगस बैकटीरिया। फंगस बैकटीरिया आन्तड़ियों में खतरनाक कैमिकल्स छोड़ते हैं और यही कैमिकल्स आन्तड़ियों से होते हुए ब्लड में मिक्स हो जाते है और दिमाग के कैमिकल्स की संरचना को बीगाड़ सकते है। आटिज्म का ईलाज जरूर संभव है पर इसको समझने के लिए अलग-अलग विशेषज्ञों के समुह की जरूरत होती है। क्योंकि ये पूरे शरीर की बीमारी है

जैसे आटिज्म सिर्फ जीन्स की बीमारी नहीं, इसी तरह इसको सिर्फ दिमाग की बीमारी समझना भी वैज्ञानिक भूल है। आटिज्म पूरे शरीर की बीमारी है, आटिज्म से पीड़ित बच्चों में और भी अनेक अंगों के नुक्स होते हैं, जैसे- शरीर की बीमारियों से लड़ने की क्षमता कम होना, बार-बार आन्त की सोजस होना, पाचन शक्ति कम होना, भारी धातुओं (जैसे- लैड, आरसैनिक, अल्युमिनीयम, पारा, कैडमियम, बेरियम) का ज्यादा होना व पोषक तत्वों का कम होना आदि। जब भारी धातुओं की मात्रा शरीर में बढ़ जाती है तो यह शरीर की कैमिकल व हार्मोन की संरचना को बीगाड़ देती है। जिसका सीधा असर दिमाग के ऊपर होता है। जैसे-जैसे ये भारी धातुएं शरीर से किलेशन प्रणाली द्वारा बाहर निकाल दिये जाते है, वैसे-वैसे बच्चों के दिमाग में सुधार होने लगता है। 

’’डीफीट आटिज्म नाउ’’ के अनुसार इन बच्चों का ईलाज पूरी तरह सम्भव है पर इसके लिए पहले बच्चे के बायोमेडिकल ईलाज जिसमें सबसे पहले बच्चे के लक्षणों की जांच होती है फिर लक्षणों का कारण जानने के लिए अलग-अलग लेब टेस्ट में से गुजारा जाता है, फिर टेस्टों के आधार पर अलग-अलग डाॅक्टर जैसे- बच्चों के माहिर, एलोपैथि डाॅक्टर, नैचरोपैथ, आयुरवैद, डायटिशीयन, कैरलथेरापीस्ट, न्युरोथेरापिस्ट, करेनियोसेकरल थेरापिस्ट एक ही थ्योरी पे चलते हुए काम करते है, व लक्षणों की गहराई में जाकर इलाज करते है जिससे बच्चों के अन्दर कुदरती तौर पर सुधार आने लगता है। फिर ट्रेनिंग जैसे- आक्यूपैशनल थरैपिस्ट, साईकोलोजिस्ट मनोविज्ञानिक, स्पैश्ल एजुकेटर व स्किल ट्रैनर और बिहेवियर थरैपिस्ट काम करें तो बच्चे आम जिन्दगी जी सकते हैं। 

भारत में पहली बार बाबा फरीद सेन्टर फाॅर स्पैशल चिल्ड्रन फरीदकोट ने इन बच्चों के ईलाज के लिए प्राचीन भारतीय इलाज प्रणाली व आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को एक साथ एक ही छत के नीचे इकट्ठा किया है, जिसमें बच्चों के माहिर, एलोपैथि डाॅक्टर, नैचरोपैथ, आयुरवैद, डायटिशीयन, कैरलथेरापीस्ट, न्युरोथेरापिस्ट, करेनियोसेकरल थेरापिस्ट, आक्यूपैशनल थरैपिस्ट, आडीटरी इन्टीग्रेसन ट्रेनिंग साईकोलोजिस्ट मनोविज्ञानिक, स्पैश्ल एजुकेटर व स्किल ट्रैनर और बिहेवियर थरैपिस्ट एक ही बच्चे के ऊपर एक साथ घंटों काम करते हैं व बच्चों को नई जिन्दगी दे रहे हैं।

By 

Pritpal Singh

Naturopath, AIT Practitioner 

Contact No. 9888914655

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