प्रथम विश्व युद्ध के 100 साल पूरे : दुनिया अब तक चुका रही वर्साय संधि का मोल

Edited By Tanuja,Updated: 11 Nov, 2018 05:06 PM

100 years of first world war end countries who paid damages

प्रथम विश्व युद्ध भले ही 1918 में खत्म हो गया लेकिन इसमें जीतने वाले सभी देशों ने एकमत से तय किया कि इसका पूरा हर्जाना जर्मनी भरेगा। उस वक्त चर्चा सिर्फ इस बात की थी कि जर्मनी से हर्जाने के रूप में क्या वसूला जाए...

पेरिसः प्रथम विश्व युद्ध भले ही 1918 में खत्म हो गया लेकिन इसमें जीतने वाले सभी देशों ने एकमत से तय किया कि इसका पूरा हर्जाना जर्मनी भरेगा। उस वक्त चर्चा सिर्फ इस बात की थी कि जर्मनी से हर्जाने के रूप में क्या वसूला जाए और इस पर कोई विवाद नहीं था कि जर्मनी ही सबको हर्जाना चुकाएगा।  प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी ने  हर्जाना चुकाया जरूर, लेकिन वह अकेला नहीं था। एक सदी बाद भी दुनिया वर्साय की शांति संधि का मोल चुका रही है। 
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हालांकि, उस वक्त भी इस संधि की खूब आलोचना हुई थी और कहा गया था कि यह यूरोप में और एक युद्ध का बीज बो रही है। लेकिन उस वक्त दुनिया पर राज कर रहे यूरोप के नेताओं को शायद यह बात समझ नहीं आई। ब्रिटेन के तत्कालीन वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री जे.एम. कीन्स ने उसी वक्त संधि को कठोरता में ‘‘कार्थेजिनियन’’ बताकर उसकी आलोचना करते हुए उससे जुडऩे के बजाए इस्तीफा दे दिया था। वहीं फ्रांसीसी मार्शल र्फिडनांड फोश ने इसके बारे में कहा था ‘‘20 साल का युद्धविराम कोई शांति नहीं है।’’ ‘‘सभी युद्धों को खत्म करने के लिए हुआ या युद्ध’’ सबसे बड़ी विभीषिका सिद्ध हुआ।
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वर्साय की संधि के माध्यम से जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पूरी तरह बर्बाद करने और राजनीतिक तथा कूटनीतिक रूप से पूरी दुनिया के सामने उसकी बेइज्जती ने नाजीवाद और उसकी क्रूरताओं को पनपने की जमीन दे दी।सिर्फ इतना ही नहीं विभिन्न संधियों के माध्यम से सीमाओं के नए निर्धारण और नए देशों के गठन ने भी पूरे यूरोप और आसपास के क्षेत्रों में विवादों तथा मतभेदों के नए आयाम पैदा कर दिए।
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इस दौरान का एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम 1917 में रूस की क्रांति भी रही। खाद्यान्न की कमी और सैन्य विफलता ने राज्य को कमजोर बना दिया और लेनिन के बोल्शेविकों को अपनी क्रांति तेज करने तथा सोवियत संघ को तानाशाही कम्युनिस्ट राष्ट्र घोषित करने का मौका दे दिया। कृषि क्षेत्र के लिए बनाई गई खराब नीतियों के कारण राष्ट्र उस दौरान 1930 के दशक में पड़े सूखे से निपट नहीं पाया और करीब 30 लाख लोग भूखमरी के शिकार हुए। इतना ही नहीं लेनिन के उत्तराधिकारी जोसेफ स्टालिन की गलत नीतियों ने भी करीब 10 लाख लोगों की जान ली।  
 

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