‘एक रैंक-एक पैंशन’ योजना को सरकार अब और न लटकाए

Edited By ,Updated: 21 Aug, 2015 03:11 PM

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क्या मोदी सरकार एक रैंक एक पैंशन (ओ.आर.ओ.पी.) लागू करने में विलम्ब करके पूर्व सैनिकों की ओर कम ध्यान नहीं दे रही? वरिष्ठ सैन्य समुदाय ने अपनी आवाज उठाकर सफलतापूर्वक अपनी मांग के समर्थन में जनता का समर्थन प्राप्त कर लिया है।

(कल्याणी शंकर): क्या मोदी सरकार एक रैंक एक पैंशन (ओ.आर.ओ.पी.) लागू करने में विलम्ब करके पूर्व सैनिकों की ओर कम ध्यान नहीं दे रही? वरिष्ठ सैन्य समुदाय ने अपनी आवाज उठाकर सफलतापूर्वक अपनी मांग के समर्थन में जनता का समर्थन प्राप्त कर लिया है। आंदोलन न केवल बना हुआ है बल्कि और भी मजबूत होता जा रहा है। जो चीज एक फुसफुसाहट से शुरू हुई थी, अब एक आंदोलन बन चुकी है, जिसमें अब तीन पूर्व सैनिक जंतर-मंतर पर आमरण अनशन पर बैठे हैं, जबकि उनके सहयोगी ओ.आर.ओ.पी. को लागू करने की मांग कर रहे हैं। 

सशस्त्र बलों पर इसके विपरीत प्रभाव को लेकर ङ्क्षचतित कम से कम 10 पूर्व सेना प्रमुखों ने हाल हीमें एक असामान्य कदम उठाते हुए प्रधानमंत्री को एकखुला पत्र लिखकर इसमें दखल देने का अनुरोध किया और अपनी चिन्ता जताई कि वरिष्ठ सैनिकों को सड़कोंपर उतरने के लिए मजबूर करना एक बहुत बड़ी गलती थी। 
 
एक के बाद एक आने वाली सभी सरकारें इस बात को जानती हैं कि पूर्व सैनिकों के संगठन ओ.आर.ओ.पी. योजना को लागू करने के लिए 2008 से आंदोलन कर रहे हैं। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि राजग पूर्व सैनिकों के साथ तीन वादे करके सत्ता में आई थी-दिल्ली के केन्द्र में एक युद्ध स्मारक की स्थापना करना, वरिष्ठ सैनिकों के लिए आयोग की नीति तथा ओ.आर.ओ.पी. को लागू करना। जहां मोदी सरकार ने पहले दो वायदों पर अभी कदम उठाना है, ओ.आर.ओ.पी. को लागू किया जाना बाकी है। 
 
2 लाख से अधिक पूर्व सैनिक चाहते हैं कि एक समान रैंक पर सेवानिवृत्त होने वाले रक्षा कर्मियों को एक जैसी पैंशन मिले। इसमें यह नहीं देखा जाए कि सेवानिवृत्ति की तिथि क्या थी। 8 फरवरी 2009 को लगभग 300 सैनिकों ने एक बड़ा प्रदर्शन किया था और अपनी मांग को लेकर राष्ट्रपति भवन की ओर मार्च किया तथा यहां तक कि रोष स्वरूप अपने मैडल लौटा दिए। 2009 में सुप्रीम कोर्ट भी उनके बचाव में आगे आई और केन्द्र सरकार को ओ.आर.ओ.पी. लागू करने का निर्देश दिया। और तो और रक्षा पर संसद की एक स्थायी समिति तथा राज्यसभा समिति ने भी याचिकाओं पर अमल करते हुए इस योजना को लागू करने का प्रस्ताव किया। 
 
लगभग एक दशक तक मांग को नजरअंदाज करने के बाद यू.पी.ए. सरकार ने अचानक अपना रुख बदला क्योंकि 2014 के आम चुनाव नजदीक आ रहे थे और योजना के लिए 500 करोड़ रुपए आबंटित किए। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के निजी हस्तक्षेप के बाद इसने मांग स्वीकार कर ली। 
 
गत जुलाई में अपने पहले पूर्ण बजट भाषण में वित्त मंत्री अरुण जेतली ने इस योजना के लिए 1000 करोड़ रुपए आबंटित करने के अपनी पार्टी के वायदे की पुष्टि की, मगर आबंटन नहीं हो पाया और इस वर्ष के बजट में ऐसा कोई आबंटन नहीं रखा गया। दरअसल मोदी सरकार का एक वर्ष पूरा होने पर इस बात की संभावना जताई जा रही थी कि मथुरा रैली में ओ.आर.ओ.पी. की घोषणा की जा सकती है। 
 
वरिष्ठ सैनिकों को तब और भी निराशा हुई जब प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में बिना कोई समय सीमा का उल्लेख किए मात्र अपने वादे को दोहरा दिया। उन्हें संदेह है कि सरकार ओ.आर.ओ.पी. की परिभाषा को ही खराब करना चाहती है। इसलिए उन्होंने जंतर-मंतर पर प्रदर्शन शुरू कर दिया। 
 
इसमें हिचक क्या है? स्पष्ट तौर पर सरकार ओ.आर.ओ.पी. के लिए बजट तथा इसे लागू करने के तरीके के बीच फंस गई है। वित्त मंत्रालय तथा रक्षा मंत्रालय के आंकड़ों में अंतर है। रक्षा मंत्रालय ने 8298.48 करोड़ रुपए का आंकड़ा बताया है, जबकि वित्त मंत्रालय इससे कहीं कम चाहता है। इसके अलावा तिथियों का भी आपस में टकराव है। पूर्व सैनिकों को संदेह है कि सरकार 4000 करोड़ रुपए बचाने के लिए अपने वायदे से मुकर रही है। उनका मानना है कि बातचीत का समय निकल चुका है और निर्णय लिया जाना चाहिए तथा ऐसा जल्दी किया जाए।  सरकार को यह भी चिन्ता है कि ओ.आर.ओ.पी. के  बाद असैन्य पैंशनरों तथा अद्र्धसैनिक बलों की ओर से भी ऐसी ही मांग उठ सकती है। 
 
दुर्भाग्य से अब पूरे घटनाक्रम का राजनीतिकरण कर दिया गया है। उदाहरण के लिए, मुद्दा अब बिहार चुनावों की ओर मुड़ रहा है क्योंकि कुछ लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री संभवत: लाभ प्राप्त करने के लिए बिहार  चुनावों के निकट ओ.आर.ओ.पी. की घोषणा कर सकते हैं। वह पहले ही बिहार के लिए हाल ही में 1.25 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा कर चुके हैं। 
 
स्वाभाविक है कि जद (यू) तथा कांग्रेस, जिनका भविष्य बिहार में दाव पर लगा है, ने इसकी वोट बैंक पैकेज कहकर आलोचना की है।  अन्य विपक्षी दल भी उनके सुर में सुर मिलाने लगे हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी आंदोलनरत पूर्व सैनिकों के समर्थन में जंतर-मंतर पहुंचे और प्रधानमंत्री पर प्रश्र उठाया कि जब बिहार के लिए मैगा पैकेज की घोषणा हो सकती है तो सरकार के पास वरिष्ठ सैनिकों के लिए धन क्यों नहीं है? आम आदमी पार्टी भी आंदोलन में कूद पड़ी है। दुख की बात यह है कि सभी राजनीतिक दल केवल इसके लिए जुबानी सांत्वना दे रहे हैं। 
 
पूर्व सेना प्रमुखों को डर है कि यदि इस मुद्दे को जल्दी नहीं सुलझाया गया तो इसका रक्षा सेवाओं पर विपरीत असर पड़ेगा। सैन्य सेवाओं के प्रति आकर्षण भी कम हो सकता है। पहले ही ज्यादातर लोग सेना में जाने की इच्छा नहीं रखते हैं क्योंकि उनकी नजर मोटी तनख्वाहों के साथ बड़ी बहुराष्ट्रीय नौकरियों पर है। ओ.आर.ओ.पी. लागू न करने से इससे और भी विमुखता होगी। 
 
दूसरे, सशस्त्र बलों ने अभी तक अपने राजनीतिक आकाओं के आदेशों का पालन किया है। ओ.आर.ओ.पी. लागू करने में देरी से इस समीकरण में बदलाव आ सकता है और संभवत: इससे नागरिक-सैन्य संबंधों पर असर पड़ेगा। पूर्व सैनिकों को डर है कि राजनीतिक नेतृत्व उनकी अनदेखी कर रहा है, जबकि युद्ध के समय देश के लिए अपनी जान जोखिम में डालने के लिए उन्हें बुलाया जाता है। 
 
तीसरे, सेवारत रक्षा कर्मियों को पूर्व सैनिकों तथा उनकी मांगों के साथ पूर्ण सहानुभूति है क्योंकि वे जानते हैं कि सेवानिवृत्ति के बाद वे भी उनमें शामिल हो जाएंगे। सेवारत सैनिक पूर्व सैनिकों की प्रतिष्ठा को लेकर ङ्क्षचतित हैं। सेवारत रक्षा कर्मियों को आंदोलन में शामिल होने की आज्ञा नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि इससे मामला पेचीदा हो सकता है। 
 
अब समय है कार्रवाई करने का। यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने वरिष्ठ सैनिकों के लिए दरवाजा खोला है और जितनी जल्दी वह समाधान खोज लेंगे, उतना ही अच्छा होगा। इसमें किसी भी प्रकार की देरी सेवारत कर्मचारियों के मनोबल पर असर डाल सकती है तथा इसके साथ सुरक्षा पेचीदगियां भी हो सकती हैं।
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