जब 'चुड़ैल' ने बचाई सैकड़ों लोगों की जान, देखने वाले रह गए थे हैरान

Edited By Tanuja,Updated: 24 Dec, 2018 06:02 PM

rwanda s zura karuhimbi who saved dozens from genocide

वांडा में 1994 में हुए जनसंहार को लेकर एक चौकाने वाला वाकया सामने आया है। इस नरसंहार में रवांडा के तुत्सी समुदाय के करीब आठ लाख लोग मारे गए थे। इस दौरान धारधार कुल्हाड़ियां लिए भीड़ ने जब जादुई शक्तियों की मालिकन जूरा कारूहिंबी नामक महिला के घर को...

किगालीः रवांडा में 1994 में हुए जनसंहार को लेकर एक चौकाने वाला वाकया सामने आया है। इस नरसंहार में रवांडा के तुत्सी समुदाय के करीब आठ लाख लोग मारे गए थे। इस दौरान धारधार कुल्हाड़ियां लिए भीड़ ने जब जादुई शक्तियों की मालिकन जूरा कारूहिंबी नामक महिला के घर को घेर कर अंदर शरण लिए लोगों को बाहर निकालने की मांग की तो उस वक्त वो बिलकुल निहत्थी थीं। उनके पास अगर कुछ था तो जादुई शक्तियों की उनकी साख थी जिससे हथियारबंद लोगों के मन में पैदा हुए डर ने उन 100 से अधिक लोगों की जान बचा दी जो  उनके घर के भीतर छिपे थे। लोगों का का मानना था कि जूरा कारूहिंबी एक चुडैल है जो उनका विनाश कर देगी। लेकिन जब कारूहिंबी  की सच्चाई पता लगी तो लोग हैरान रह गए थे।PunjabKesari
मारे गए इन लोगों में हमलावर हूतू समुदाय के उदारवादी लोग भी शामिल थे। इन में कारूहिंबी की पहली बेटी भी थीं। इस नरसंहार के दो दशक बाद अपने दो छोटे कमरों के घर में द इस्ट अफ्रीकन से बात करते हुए उन्होंने कहा था। "उस नरसंहार के दौरान मैंने इंसान के दिल का कालापन देखा था।" इसी घर में उन्होंने उन लोगों को छुपाया था और उनकी जान बचाई थी। बीते सोमवार को रवांडा की राजधानी किगाली से करीब एक घंटे की दूरी पर पूर्व में स्थित मासूमो गांव में जूरा कारूहिंबी की मौत हो गई। किसी को नहीं पता है कि वो कितने साल की थीं। अधिकारिक दस्तावेजों में उनकी उम्र 93 साल है जबकि वो अपने आप को सौ बरस से ज्यादा का बताती थीं। जो भी हो, लेकिन जब हूतू मिलिशिया ने उनके गांव पर हमला किया था तब वो बहुत युवा नहीं थीं।कारूहिंबी के बारे में जो बहुत सी कहानियां लिखी गई हैं उनके मुताबिक वो एक पारंपरिक ओझा परिवार में 1925 में पैदा हुईं थीं।
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जन्म का ये साल उनके अधिकारिक पहचान पत्र से लिया गया है। कहा जा सकता है कि 1994 की घटनाओं के तार उनके बचपन से ही जुड़ने शुरू हो गए थे। यही वो दौर था जब रवांडा पर बेल्जियम का शासन हुआ और इस ओपनिवेशिक शक्ति ने रवांडा के लोगों को स्पष्ट रूप से बंटे हुए समूहों में बांट दिया। पहचान पत्र जारी करके लोगों को बता दिया गया कि वो हूतू हैं या तुत्सी। कारूहिंबी का परिवार हूतू था और ये समुदाय रवांडा में बहुसंख्यक था। लेकिन अल्पसंख्यक तुत्सी समुदाय के लोगों को उच्च वर्गीय समझा जाता था और यही वजह थी कि बेल्जियम के शासनकाल में नौकरियों और व्यापार में इसी समूह का बोलबाला था। इस बंटवारे ने दोनों समूहों के बीच तनाव भी पैदा किया। 1959 में कारुहिंबी युवा ही थीं जब तुत्सी राजा किगेरी पंचम और उनके दसियों हजार तुत्सी समर्थकों को पड़ोसी उगांडा में शरण लेनी पड़ी। ये रवांडा में हुई हूती क्रांति के बाद की बात है।
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 नरसंहार की बीसवीं बरसी पर उन्होंने रवांडा के पत्रकार जीन पिएरे बुकयेन्सेन्गे को बताया था कि उस दौरान वो लोगों को गिन नहीं रहीं थीं। उस समय उनके पास और बहुत ज्यादा मुश्किल काम थे। लेकिन शरण लिए लोगों की संख्या इतनी जरूर थी कि इस बारे में भनक हूतू मिलिशिया को लग गई थी। बुकयेन्सेन्गे कहते हैं, "जूरू के पास सिर्फ एक ही हथियार था। अपनी कथित जादुई शक्तियों से हमलावरों को डराना। उन्होंने मिलिशिया को चेता दिया था कि अगर कुछ हुआ तो वो उन पर और उनके परिवारों पर बुरी आत्माएं छोड़ देंगी।" कारूहिंबी के मुताबिक एक बार 1959 में जब दोनों समूहों के बीच नस्लीय हिंसा भड़क रही थी तब उन्होंने दो साल के एक तुत्सी बच्चे की मां से कहा था कि वो उनके नेकलेस से दो मोती लेकर अपने बेटे के बालों में बांध दे। उन्होंने बताया, "मैंने उससे कहा था कि अपने बेटे को गोदी में उठाकर चलें। बालों में मोती देखकर मिलिशिया बच्चे को लड़की समझते। उस दौरान मिलिशिया सिर्फ तुत्सियों के बेटों को ही मारते थे।"
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कारूहिंबी के मुताबिक वो बच्चा बच गया और उसी ने उन्हें वो मेडल दिया। वो थे रवांडा के राष्ट्रपति पाल कगामे। कारूहिंबी को कभी पता नहीं चल सका कि जिन और लोगों को उन्होंने बचाया उनका क्या हुआ। जीवन के अंतिम दिनों में उनकी एक भतीजी ने उनकी देखभाल की। अपने आखिरी इंटरव्यू के दौरान वो उसी घर में रह रहीं थीं लेकिन गरीबी की वजह से वो घर जर्जर हो रहा था। पॉल कगामे ने जो मेडल उन्हें दिया था वो उनकी संपत्ति बना रहा। वो हर समय उस मेडल को पहनकर रहतीं। जब सोतीं तो उसे अपने तकिए के नीचे रख लेतीं।

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