क्या दुनिया में ‘जिनपिंगवाद’ के नए युग का जन्म हो रहा है

Edited By Punjab Kesari,Updated: 03 Nov, 2017 01:26 AM

is there a new era of gyppingism being born in the world

चीन में अभी हाल ही में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ, जिसका दूरगामी प्रभाव भारत पर ही नहीं अपितु समस्त वैश्विक राजनीति पर पडऩा निश्चित है। इसी पृष्ठभूमि में चीन का मूल वैचारिक स्वभाव पुन: प्रत्यक्ष हुआ है। डोकलाम कांड के बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग...

चीन में अभी हाल ही में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ, जिसका दूरगामी प्रभाव भारत पर ही नहीं अपितु समस्त वैश्विक राजनीति पर पडऩा निश्चित है। इसी पृष्ठभूमि में चीन का मूल वैचारिक स्वभाव पुन: प्रत्यक्ष हुआ है। डोकलाम कांड के बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने चीन के दक्षिण पश्चिम में तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र के चरवाहों को इस बात के लिए उकसाया है कि वे अरुणाचल प्रदेश की सीमा के निकट आकर बसें ताकि चीनी क्षेत्र की रक्षा हो सके। अपने इस कदम के पीछे चीन ‘विकास’ की कहानी गढ़ रहा है। 

क्या माक्र्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद के बाद विश्व में एक ‘नए युग’ जिनपिंगवाद का जन्म हो रहा है? चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दूसरे कार्यकाल को स्वीकृति मिलने के बाद सत्तारूढ़ दल (सी.पी.सी.) ने शी के नाम और उनकी विचारधारा को अपने संविधान में अंगीकार कर लिया। संविधान में ‘शी जिनपिंग  विचार’ लिखने संबंधी संशोधन सर्वसम्मति से पारित हो गया। इस प्रकार शी अब पार्टी के संस्थापक माओ-त्से-तुंग और उनके उत्तराधिकारी देंग शियाओ पिंग के समकक्ष हो गए। पार्टी के संविधान संशोधन के आधारभूत सिद्धांतों में अर्थव्यवस्था से लेकर आम नागरिक की गतिविधियों और सोशल मीडिया तक, समाज के सभी पहलुओं को नियंत्रित करने में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका पर बल दिया है। 

अपने भाषण में शी जिनपिंग ने ‘नए युग में चीनी विशेषता के साथ समाजवाद’ दर्शन को प्रस्तुत किया था, जिसे चीन में जिनपिंगवाद’ के जन्म के रूप में देखा जा रहा है। ‘चीनी विशेषता’ का अर्थ स्वाभाविक है, जिसकी अवधारणा में एकाधिकार शासन, मानवाधिकारों का हनन, उत्पीडऩ और साम्राज्यवाद हैं। शी द्वारा देश की सेना को युद्ध की तैयारी और लड़ाई जीतने पर ध्यान केन्द्रित करने का आदेश, इसका प्रमाण है। माओ की माक्र्सवादी ‘सांस्कृतिक क्रांति’, क्रूर साम्यवादी और साम्राज्यवादी विचारों का ही परिणाम था कि 1970 के दशक में चीन की अर्थव्यवस्था संकट और अराजकता के भंवर में फंस गई थी। माओ के लिए मानवीय जीवन और अधिकारों का कोई मूल्य नहीं था। 

मानवाधिकारों के हनन और दमनचक्र की पृष्ठभूमि में चीन 1959-61 में भीषण अकाल का शिकार हुआ। माओ की नीतियों के कारण 3.80 करोड़ लोग भूख से मरे। नरसंहार के मामले में तो माओ ने हिटलर, स्टालिन और मुसोलिनी जैसे क्रूर तानाशाहों को भी पीछे छोड़ दिया। क्रांति के नाम पर माओ ने कई प्रयोग किए किन्तु विकास नहीं हुआ। 1976 में माओ की मृत्यु के बाद सत्ता में आए देंग शियाओ पिंग ने अव्यवस्थित साम्यवादी अर्थव्यवस्था में खुले बाजार की नीति को स्वीकार किया, जिसे ‘बाजार समाजवाद’ का नाम दिया गया। 

दुनिया के समक्ष चीन के रूप में एक ऐसी विकृत व्यवस्था है, जहां राजनीति में आज भी हिंसाग्रस्त माक्र्सवादी अधिनायकवाद का स्वामित्व है तो उसकी अर्थव्यवस्था पूंजीवाद के मकडज़ाल में जकड़ी हुई है, जहां श्रमिकों का शोषण ही सफलता की कुंजी है। एक रिपोर्ट के अनुसार, यहां प्रतिदिन लगभग 786 लोग आत्महत्या करते हैं, जिसमें एक बड़ा भाग उत्पीड़ितों का है। चीन की तथाकथित आर्थिकसमृद्धि, महानगरों में गगनचुंबी इमारतें, अस्त्र-शस्त्र से लैस विशाल सेना आदि का तानाबाना असंख्य चीनियों के क्रूर शोषण से ही संभव हुआ है। 

चीन में अधिकतर मानवाधिकार रक्षक इस बात से आशंकित हैं कि जिनपिंग के ‘नए दौर’ में उन पर दमनकारी कार्रवाई और अधिक बढ़ सकती है। वर्ष 2012 में पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद से जिनपिंग शासन में प्रदर्शनकारियों से लेकर मानवाधिकार वकीलों, शिक्षकों और स्वतंत्र लेखकों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। जिनपिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी के हालिया महासम्मेलन में स्पष्ट किया था कि सामाजिक तनाव और समस्याओं के मामले को कानून के अंतर्गत कड़ाई से निपटाया जाएगा। साथ ही हांगकांग और स्वशासित ताइवान की स्वतंत्रता के समर्थकों को चेतावनी देते हुए कहा था, ‘‘हम किसी को भी अपने किसी भी हिस्से को चीन से अलग करने की अनुमति नहीं देंगे।’’ 

चीन के तीसरे राजनीतिक अध्याय में अब तक राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर कई कानून बनाए गए हैं, जिनमें इंटरनैट नियंत्रण भी शामिल है। हांगकांग में कई लोकतंत्र समर्थकों को गिरफ्तार किया गया। वर्ष 2015 में पुलिस कार्रवाई में 200 से अधिक चीनी मानवाधिकार वकीलों और प्रदर्शनकारियों को पकड़ा गया या उनसे पूछताछ की गई थी। वर्ष 2008 से जेल में बंद लोकतंत्र समर्थक और नोबेल पुरस्कार विजेता ली शाओबो को तब गिरफ्तार कर लिया गया था जब उन्होंने चीन की राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन और मानवाधिकारों की मांग की थी। उन्हें रिहा करने के अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के आग्रह को चीन ने प्राथमिकता नहीं दी और कैंसर के कारण शाओबो की इस वर्ष 14 जुलाई को मौत हो गई। नोबेल समिति ने चीन को सीधे तौर पर उनके निधन के लिए जिम्मेदार ठहराया था। 

चीन में शिनजियांग प्रांत सरकार द्वारा मजहबी प्रतिबंध का शिकार है। यहां इस्लामी नाम रखने पर पाबंदी है। रोजा रखना, मुस्लिम पुरुषों का दाढ़ी बढ़ाना और महिलाओं का बुर्का पहनना निषेध है। इसके अतिरिक्त चीन द्वारा कब्जाए तिब्बत में भी सरकार मानवाधिकारों का हनन कर रही है। वहां नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिकऔर भाषाई विरासत को कुचला जा रहा है। तिब्बती बौद्धों को केवल दलाईलामा की फोटो रखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है। साम्यवाद में विश्वास रखने का दावा करने वाला चीन एक कुटिल साम्राज्यवादी राष्ट्र भी है।

माओ के नेतृत्व में जब साम्यवादी दल ने अक्तूबर 1949 में चीनी गणराज्य की स्थापना की, तब उसने सबसे पहले तिब्बत पर कब्जा कर लिया। चीन की 14 देशों के साथ सीमाएं मिलती हैं और एशियाई महाद्वीप में लगभग उसका सभी पड़ोसियों सहित 23 देशों के साथ विवाद चल रहा है। विश्व के इस भूखंड में पाकिस्तान ही एक ऐसा राष्ट्र है जो चीन का घनिष्ठ मित्र है और इसका आधार ही भारत विरोधी एजैंडा है। चीन ने भारत पर एकमात्र प्रत्यक्ष हमला 1962 में किया था किन्तु परोक्ष रूप से वह भारत को निरंतर अस्थिर करने की योजना बनाने में जुटा है। यदि भारत की सनातन बहुलतावादी संस्कृति को ‘हजारों घाव देकर मारना’, पाकिस्तान का मजहबी कत्र्तव्य है तो उस एजैंडे को क्रियान्वित करना आज चीन की अघोषित रणनीति बन चुकी है।

यही कारण है कि आर्थिकलाभ के साथ-साथ सामरिक हितों को साधते हुए चीन ने इस्लामी आतंकवाद व कट्टरता के गढ़ और बदहाल पाकिस्तान को ओ.बी.ओ.आर. परियोजना में महत्वपूर्ण सहयोगी बनाया है। चीन की कूटनीति उसके सुन त्जु जैसे मार्गदर्शकों की नीतियों के साथ-साथ उसके पारंपरिक खेल ‘वी-की’ से काफी प्रभावित है, जिसका उद्देश्य शतरंज की भांति केवल विजय प्राप्त करना ही नहीं बल्कि एक योजनाबद्ध अभियान के अंतर्गत अपने प्रतिद्वंद्वी को चारों दिशाओं से घेरकर उस पर बढ़त बनाना भी है। भारत के संदर्भ में चीन यह नीति गत कई वर्षों से अपना रहा है। 

चीन स्वयं को प्राचीनकाल से ही एक विशाल सभ्यता मानता आया है जो विश्व के लिए ईश्वरीय वरदान से कम नहीं है। कालांतर में एशियाई महाद्वीप में जापान के साथ वर्तमान समय में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो चीन के तिलिस्म को खुलकर चुनौती दे रहा है। डोकलाम घटनाक्रम में भारत की कूटनीतिक ‘विजय’ उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।-बलबीर पुंज

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