श्रीगौर पूर्णिमा: 520 वर्ष पहले प्रकट हुए थे श्री चैतन्य महाप्रभु पढ़ें उनका जीवन चरित्र

Edited By ,Updated: 23 Mar, 2016 01:28 PM

gaur purnima sri chaitanya mahaprabhu

भारतवर्ष के सवर्णिम इतिहास में एक बार कुछ ऐसा अंधकारमय युग भी आया था जब राजा लोग भ्रष्ट हो गये थे व प्रजा को बलि का बकरा समझने लगे थे।

भारतवर्ष के सवर्णिम इतिहास में एक बार कुछ ऐसा अंधकारमय युग भी आया था जब राजा लोग भ्रष्ट हो गये थे व प्रजा को बलि का बकरा समझने लगे थे। भारत में विदेशी हमलावरों का आतंक फैल गया था। भागवत धर्म, सनातन धर्म लगभग लुप्त आ हो गया था। सभी लोग विषय भोगों में लिप्त हो गये थे। ऐसे समय में जो स्वयं को चतुर्वेदी, भट्टाचार्य अथवा चक्रवर्ती कहते थे वे स्वयं शास्त्र के मर्म को न जानते थे।
 
धर्म-कर्म के नाम पर लोग उसी को पुण्यात्मा कहते थे जो स्नान के समय गोविन्द, पुण्डरीकाक्ष, इत्यादि नाम लेते थे। लोगों केए पास धन का अभाव नहीं था पर वे उसका व्यय मिट्टी की गुड़ीया अथवा पालतु कुत्ते-बिल्लियों के विवाह में करते थे। सभी लोग विष्णु भक्ति शून्य थे। पापी लोग स्वयं तो साधन-भजन करते नहीं थे और तो और कोई साधु अगर ताली बजाकर कृष्णनाम कर रहे हों तो ये लोग उन पर भी क्रोध करते अथवा उनका मज़ाक उड़ाते थे। लोग यही समझते अथवा कहते थे कि बरसात के चार महीने तो भगवान सोते हैं, इसलिये हरि-कीर्तन इत्यादि करने से भगवान की नींद में व्यवधान आयेगा। इससे कुपित हुये भगवान देश में दुर्भिक्ष करायेंगे। 
 
 
मध्यकालीन युग अर्थात् 11वीं शताब्दी के मध्य में समाज में कई प्रकार की कुरीतियों ने स्थान बना लिया था। सत्य के स्थान पर झूठ और पाखण्ड का बोलबाला हो गया था। छुआ-छूत का प्रचलन हो गया था। निम्न जाति के वर्गों पर कई प्रकार की पाबन्दियाँ लग गयीं थीं। मनुष्यों को उनकी मनुष्यता से न तोलकर उनकी जाति से तोला जाने लगा था। 
 
 
हर अत्याचार की एक सीमा होती है। पाप का घड़ा भी एक न एक दिन भर जाता है। फिर सभी शास्त्र कहते हैं कि पाप का फल तो दुःख ही होता है। जीवों के दुःख को भगवान बहुत समय तक सहन नहीं करते। इसलिये भक्तवत्सल श्रीगौरसुन्दर अपने भक्तों की पुकार पार दहकते दुःखों के दावानल में जलते हुए जीवों पर दया करने के लिए, इस युग के धर्म, अर्थात् हरि कीर्तन के प्रचार-प्रसार हेतु श्रीधाम मायापुर (नदिया) में फाल्गुनी पूर्णीमा तिथि के अति शुभ लग्न में अर्थात् 18 फरवरी 1486, की सन्ध्या में प्रकट हो गये। 
 
अपने प्राकट्य के समय भगवान ने ऐसी अद्भुत लीला की आस्तिक/नास्तिक सभी लोग परम्परानुसार उस समय, उच्च स्वर से 'हरिबोल' 'हरिबोल' पुकार रहे थे। कोई शंख बजाकर शुभ ध्वनि कर रहे थे तो कोई गंगा में स्नान करने जा रहे थे, क्योंकि प्राकट्य के समय चन्द्र-ग्रहण था। भगवान श्रीचैतन्य, शची मैय्या और श्रीजगन्नाथ मिश्र का अवलम्बन कर प्रकट हुए। 
 
 
श्रीगौरसुन्दर के आविर्भाव के समय इनके नाना, श्री नीलाम्बर चक्रवर्ती (प्रसिद्ध ज्योतिष पण्डित) जी ने भविष्यवाणी की कि अवश्य ही यह बालक युग पुरूष होगा। उन्होंने इनका नाम रखा विश्वम्भर । संन्यास लीला के बाद आप श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नाम से विख्यात हुए। बचपन में जब आप रोने की लीला करते थे, तब तक चुप नहीं होते थे जब तक आपने आस-पास स्त्रियां, व आपकी माता इकट्ठे होकर 'हरिबोल' 'हरिबोल' का कीर्तन नहीं करने लगते। 
 
कलियुग के युगधर्म 'कीर्तन' के प्रचार-प्रसार का आरम्भ आपने ही किया था। कई लोग भगवान महाप्रभु को सिर्फ एक प्रेमी भक्त मानते हैं, वे ज़रा सोचें की अनेक भक्तों के चरित्र पढ़ने-सुनने के बाद, क्या कभी सुना है कि उन भक्तों ने अपने किसी भक्त को स्वयं भगवान के स्वरूप के रूप में दर्शन दिया हो। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने अपने प्रिय भक्तों को अपने विराट रूप में, श्रीकृष्ण रूप में, परब्रह्म श्री राम, श्रीनारायण, श्रीनृसिंह, श्रीवराह, आदि अनेक स्वरूपों से दर्शन दिये थे व देते हैं। 
 
 
श्रीमद् भागवत, श्रीमहाभारत, श्रीनृसिंह पुराण, श्रीब्रह्मपुराण, श्रीबृहन्नारदीय पुराण, श्रीब्रह्मयामल, श्रीकपिल तन्त्र, श्री जैमिनी भारत, श्रीअनन्त संहिता, श्रीश्वेताश्वर उपनिषद, श्रीकलिसन्तरणोपनिषद, श्रीभागवत-सन्दर्भ, श्रीबृहद् भागवतामृत, श्रीचैतन्य भागवत तथा श्रीचैतन्य चरितामृत आदि तमाम वैदिक शास्त्र इस बात के प्रमाण हैं। 
 
 
इस कलियुग में हरिनाम संकीर्तन ही एक मात्र ऐसा प्रभावशाली तरीका है जिससे हमारा कल्याण अति शीघ्र व निश्चित रूप से होता है। ये उपदेश केवल भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने ही नहीं दिये बल्कि श्रीगीता, श्रीभागवत, श्री राम चरित मानस, वेदान्त, पुराण व गुरु ग्रन्थ साहिब, इत्यादि सभी ग्रन्थ व सभी सन्त एक मत से हम कलियुग के जीवों को हरिनाम संकीर्तन करने का उपदेश देते हैं, निर्देश देते हैं व आदेश देते हैं। 
 
भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी पश्चिम बंगाल में नवद्वीप धाम में 520 वर्ष पहले प्रकट हुये। आपने 48 वर्ष इस पृथ्वी पर लीला की । 24 वर्ष गृहस्थ व वइसरय वर्ष संन्यास लीला। गृहस्थ लीला करते हुये आपने हमें यह दिखाया की आम गृहस्थ कैसे काम-काज़ के साथ-साथ भजन करते हैं व बाद में संन्यासी वेष में दिखाया कि एक संन्यासी को कैसे भजन करना चाहिये व सबसे करवाना चाहिये। 
 
श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
श्री भक्ति वितार विष्णु जी महाराज 
bhakti.vichar.vishnu@gmail.com 

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