तप, त्याग और साधना के कोहेनूर थे बाबा श्री रत्न मुनि जी महाराज

Edited By ,Updated: 09 Aug, 2016 10:01 AM

ratan muni maharaj

तप, त्याग और साधना के कोहेनूर महाश्रमण भोले बाबा श्री रत्न मुनि जी महाराज का जन्म 15 अगस्त, 1917 को जिला हमीरपुर हिमाचल में श्री रोवालराम और श्रीमती कारजो देवी के घर हुआ। छोटी आयु में ही आप का सान्निध्य आचार्य सम्राट पूज्य

तप, त्याग और साधना के कोहेनूर महाश्रमण भोले बाबा श्री रत्न मुनि जी महाराज का जन्म 15 अगस्त, 1917 को जिला हमीरपुर हिमाचल में श्री रोवालराम और श्रीमती कारजो देवी के घर हुआ। छोटी आयु में ही आप का सान्निध्य आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज के चरणों से हुआ। उनके विराट व्यक्तित्व का आप पर प्रभाव पड़ा, मन में विरक्ति जागृत हुई, संसार असार दिखाई देने लगा और गुरु देव के चरणों में आपने 1939 ई. में बलाचौर में 22 वर्ष की आयु में मुनि दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के पश्चात आपने गुरु चरणों में रह कर स्वाध्याय और सेवा को जीवन का ध्येय बना लिया जो जीवन भर चलता रहा।
 
‘दशवैकालिक’ सूत्र (जैनागम) में मुनि की परिभाषा देते हुए कहा गया है ‘‘जिसे न जाति का अभिमान है, न रूप का अभिमान है, न लाभ का अभिमान है, न ज्ञान का अभिमान है और जिसने सभी प्रकार के अभिमानों का दमन कर लिया है तथा जो धर्म ध्यान में रत है वही भिक्षु है, वही मुनि है।’’ 
 
आगम सम्मत मुनि की यह परिभाषा महाश्रमण श्री रत्न मुनि जी महाराज के जीवन पर चरितार्थ होती है।
 
अपने जीवन की साधना को आपने  मानव मात्र की सेवा और भलाई के साथ जोड़ लिया था। एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि महाराज जब भी कोई व्यक्ति आकर आपसे फरियाद करता है कि भोले बाबा! मेरे पिता जी अस्पताल में बीमार पड़े हैं, उन्हें मंगल पाठ सुना दें तो आप न सर्दी की परवाह करते हैं और न गर्मी की और झट उन्हें पाठ सुनाने और सांत्वना देने चले जाते हैं।
 
बाबा ने मुस्कुरा कर कहा, ‘‘मुझ से दूसरों का दुख देखा नहीं जाता। यदि मेरे मंगल पाठ सुनाने से कोई रोगी स्वस्थ हो जाता है तो अच्छी बात है। यह शरीर यदि दूसरों के काम आ जाए तो इससे बढ़कर और अच्छा कार्य क्या होगा। आराम देना तो प्रभु के हाथ में है, मैं तो केवल निमित्त मात्र हूं।’’ यह थी श्री रत्न मुनि जी महाराज की महानता।
 
वह राष्ट्रवादी महात्मा थे। राष्ट्रवादी विचारधारा के पक्षधर होने के कारण वह सदैव युवा पीढ़ी को नैतिक जीवन मूल्यों के प्रति सजग रहने की प्रेरणा देते थे। उनका मानना था कि हमारा युवा वर्ग राष्ट्र की आधारशिला है। राष्ट्रीय नेताओं के प्रति उनकी धारणा थी कि उन्हें सत्तालोलुप नहीं होना चाहिए। अपितु राष्ट्र हित को सर्वोपरि मानकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए। 
 
श्री रत्न मुनि जी महाराज ने अपने गुरुदेव पूज्यवर श्री आत्मा राम जी महाराज की प्राणपण से बिना ग्लानि के सेवा की इसलिए वे जन-जन की प्रेरणा बन गए। उनका जीवन साम्प्रदायिकता से दूर और महत्वाकांक्षा से अलग विलक्षण जीवन था। 
         
—साहित्य रत्न डा. मुलख राज जैन 

प्रस्तुति : देवेंद्र, भूपेश जैन  

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