श्रीमद्भगवद्गीता: जीवन की परम सिद्धि को करें प्राप्त

Edited By ,Updated: 09 Sep, 2016 11:27 AM

bhagwad gita sri krishna

शांति का सबसे बड़ा सूत्र श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 5 (कर्मयोग) ड्डभोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। 29।।

शांति का सबसे बड़ा सूत्र 

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद अध्याय 5 (कर्मयोग)

ड्डभोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।। 29।।

 

शब्दार्थ 

भोक्तारम् —भोगने वाला, भोक्ता; यज्ञ—यज्ञ; तपसाम्—तपस्या का; सर्वलोक—सम्पूर्ण लोकों तथा उनके देवताओं का; महा-ईश्वरम्—परमेश्वर; सुहृदम्—उपकारी; सर्व—समस्त; भूतानाम्—जीवों का; ज्ञात्वा—इस प्रकार जानकर; माम्—मुझ (कृष्ण) को; शान्तिम्—भौतिक यातना से मुक्ति; ऋच्छति—प्राप्त करता है।

 

अनुवाद

मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोगों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शांति लाभ करता है।

 

तात्पर्य :

माया के वशीभूत सारे बद्धजीव इस संसार में शांति प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं किंतु भगवद्गीता के इस अंश में वर्णित शांति के सूत्र को वे नहीं जानते। शांति का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि भगवान कृष्ण समस्त मानवीय कर्मों के भोक्ता हैं।

 

मनुष्यों को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान की दिव्यसेवा में अर्पित कर दें क्योंकि वही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले देवताओं के स्वामी हैं। उनसे बड़ा कोई नहीं है। वे बड़े से बड़े देवता से भी महान हैं। वेदों में (श्वेताश्वतर उपनिषद् 6.7) भगवान को तमीश्वराणां परमं महेश्वरम् कहा गया है। माया के वशीभूत होकर सारे जीव सर्वत्र  अपना प्रभुत्व जताना चाहते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि सर्वत्र भगवान की माया का प्रभुत्व है। भगवान प्रकृति (माया) के स्वामी हैं और बद्धजीव प्रकृति के कठोर अनुशासन के अंतर्गत हैं। जब तक कोई इन तथ्यों को समझ नहीं लेता तब तक संसार में व्यष्टि या समष्टि रूप से शांति प्राप्त कर पाना संभव नहीं है। कृष्णभावनामृत का यही अर्थ है। भगवान कृष्ण परमेश्वर हैं तथा देवताओं सहित सारे जीव उनके आश्रित हैं। पूर्ण कृष्णभावनामृत में रह कर ही पूर्ण शांति प्राप्त की जा सकती है।

 

यह पांचवां अध्याय कृष्णभावनामृत की, जिसे सामान्यतया कर्मयोग कहते हैं, व्यावहारिक व्याख्या है। इसमें इस प्रश्र का उत्तर दिया गया है कि कर्मयोग से मुक्ति किस तरह मिलती है। कृष्ण भावनामृत में कार्य करने का अर्थ है परमेश्वर के रूप में भगवान के पूर्णज्ञान के साथ कर्म करना। ऐसा कर्म दिव्यज्ञान से भिन्न नहीं होता। प्रत्यक्ष कृष्णभावनामृत भक्तियोग है और ज्ञानयोग वह पथ है जिससे भक्तियोग प्राप्त किया जाता है। 

 

कृष्णभावनामृत का अर्थ है परमेश्वर के साथ अपने संबंध का पूर्णज्ञान प्राप्त करके कर्म करना और इस चेतना की पूर्णता का अर्थ है श्रीकृष्ण या श्री भगवान का पूर्णज्ञान। शुद्ध जीव भगवान के अंश रूप में ईश्वर का शाश्वत दास है। वह माया पर प्रभुत्व जमाने की इच्छा से ही माया के सम्पर्क में आता है और यही उसके कष्टों का मूल कारण है। जब तक वह पदार्थ के सम्पर्क में रहता है उसे भौतिक आवश्कताओं के लिए कर्म करना पड़ता है किंतु कृष्णभावनामृत उस पदार्थ की परिधि में स्थित होते हुए भी आध्यात्मिक जीवन में ले आता है क्योंकि भौतिक जगत में भक्ति का अभ्यास करने पर जीव का दिव्य स्वरूप पुन: प्रकट होता है जो मनुष्य जितना ही ‘प्रगत’ है वह उतना ही पदार्थ के बंधन से मुक्त रहता है। भगवान किसी का पक्षपात नहीं करते। यह तो कृष्णभावनामृत के लिए व्यक्तिगत व्यावहारिक कर्तव्यपालन पर निर्भर करता है जिससे मनुष्य इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करके इच्छा तथा क्रोध के प्रभाव को जीत लेता है और जो कोई उपर्युक्त कामेच्छाओं को वश में करके कृष्णभावनामृत में दृढ़ रहता है वह ब्रह्मनिर्वाण या दिव्य अवस्था को प्राप्त होता है।

 

कृष्णभावनामृत में अष्टांयोग पद्धति का स्वयंमेव अभ्यास होता है क्योंकि इससे अंतिम लक्ष्य की पूर्ति होती है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि के अभ्यास द्वारा धीरे-धीरे प्रगति हो सकती है किंतु भक्तियोग में तो यह प्रस्तावना के स्वरूप हैं क्योंकि केवल इसी से मनुष्य को पूर्ण शांति मिल सकती है। यही जीवन की परम सिद्धि है। 

(क्रमश:)

 

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