Edited By ,Updated: 14 Jun, 2016 08:11 AM
आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीता: सह षड्भिरंगै:। छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुंता इव जातपक्षा: (वसिष्ठ स्मृति 6/3; देवी भागवत 11/2/1)
‘शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छंद, व्याकरण और ज्योतिष इन छ: अंगों सहित अध्ययन किए हुए वेद भी
आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यद्यप्यधीता: सह षड्भिरंगै:। छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुंता इव जातपक्षा: (वसिष्ठ स्मृति 6/3; देवी भागवत 11/2/1)
‘शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छंद, व्याकरण और ज्योतिष इन छ: अंगों सहित अध्ययन किए हुए वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं करते। मृत्युकाल में आचारहीन मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते हैं। जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घोंसले को।
आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिता: प्रजा:। आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्।। (मनुस्मृति4/156)
‘मनुष्य आचार से आयु को प्राप्त करता है, आचार से अभिलषित संतान को प्राप्त करता है, आचार से अक्षय धन को प्राप्त करता है और आचार से अनिष्ट लक्षण को नष्ट कर देता है।’
आचार:फलते धर्ममाचार:फलते धनम्। आचाराच्छ्रियमाप्रोति आचारो हन्त्यलक्षणम्।।
आचार ही धर्म को सफल बनाता है, आचार ही धनरूपी फल देता है, आचार से मनुष्य को सम्पत्ति प्राप्त होती है और आचार ही अशुभ लक्षणों का नाश कर देता है।
आचाराल्लभते चायुराचाराल्लभते प्रजा:।
आचारादन्नमक्षय्यमाचारो हन्ति पातकम्।।
आचार: परमो धर्मो नृणां कल्याणकारक:।
इह लोके सुखी भूत्वा परत्र लभते सुखम्।।
(देवीभागवत 11/1/10-11)
आचार से ही आयु, संतान तथा प्रचुर अन्न की उपलब्धि होती है। आचार सम्पूर्ण पातकों को दूर कर देता है। मनुष्यों के लिए आचार को कल्याणकारक परम धर्म माना गया है। आचारवान मनुष्य इस लोक में सुख भोग कर परलोक में भी सुखी होता है।
आचारवान् सदा पूत: सदैवाचारवान् सुखी
आचारवान् सदा धन्य: सत्यं सत्यं च नारद।।
(देवीभागवत 11/24/98)
(भगवान बोले) नारद! आचारवान मनुष्य सदा पवित्र, सदा सुखी और सदा ही धन्य है। यही सत्य है। सत्य है।
य: शास्त्रविधिमृत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्रोति न सुखं न परां गतिम्।।
तस्माच्छस्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।
(गीता 16/23-24)
जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़ कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह न सिद्धि (अंत:करण की शुद्धि) को , न सुख (शांति) को और न परम गति को ही प्राप्त होता है। अत: तेरे लिए कर्तव्य-अकर्तव्य व्यवस्था शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा जानकर तू इस लोक में शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य-कर्म करने योग्य है अर्थात तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य कर्म करने चाहिएं।
—अभय मिश्र