Edited By Monika Jamwal,Updated: 26 Dec, 2018 04:34 PM
जम्मू-कश्मीर में छह माह पूर्व राज्यपाल शासन और अब राष्ट्रपति शासन लागू हो जाने के कारण तमाम राजनीतिक दल विशेषकर कश्मीर आधारित नैशनल कांफ्रैंस एवं पी.डी.पी. सत्ता में वापसी के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं।
जम्मू (बलराम): जम्मू-कश्मीर में छह माह पूर्व राज्यपाल शासन और अब राष्ट्रपति शासन लागू हो जाने के कारण तमाम राजनीतिक दल विशेषकर कश्मीर आधारित नैशनल कांफ्रैंस एवं पी.डी.पी. सत्ता में वापसी के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं। यही कारण है कि अलगाववादी सोच वाले कश्मीरियों को लुभाने की कवायद के तहत इन पार्टियों के लिए राष्ट्रविरोधी ताकतें भी चहेती बन गई हैं। सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ के दौरान पत्थरबाजी करके आतंकवादियों को भागने में मदद करने वाली भीड़ उनके लिए आम नागरिक और इन पत्थरबाजों पर कार्रवाई करने वाले सुरक्षा बल आततायी हो गए हैं। हालांकि, यह भी तय है कि नैशनल कांफ्रैंस अध्यक्ष डा. फारूक अब्दुल्ला हों या पी.डी.पी. अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती, सत्ता प्राप्ति के साथ ही इन नेताओं का दृष्टिकोण पूरी तरह बदल जाएगा और ये नेता राष्ट्रीय हितों की दुहाई देने लगेंगे।
आजादी के बाद से कश्मीरी नेताओं की भारत के प्रति सोच सत्ता अथवा विपक्ष में होने के साथ ही निर्धारित होती आई है। जो पार्टी सत्ता में होती है, उसके लिए भारतीय गणतंत्र, भारतीय लोकतंत्र एवं भारतीय संविधान का पालन प्राथमिकता होता है, लेकिन जैसे ही वह पार्टी सत्ता से बाहर हो जाती है तो वह भारत विरोधी बयानबाजी शुरू कर देते हैं और सबसे पहले सुरक्षा बल उनका निशाना बनते हैं। डा. फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती द्वारा समय-समय पर की जाने वाली बयानबाजी इसका प्रमाण है।
जम्मू-कश्मीर में जो भी मुख्यमंत्री होता है, सेना, सीमा सुरक्षा बल, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, राज्य पुलिस समेत तमाम सुरक्षा बलों पर आधारित यूनिफाइड कमांड की बागडोर उसी के हाथ में होती है, इसलिए सत्तारूढ़ दल द्वारा सुरक्षा बलों की कार्रवाई को गलत ठहराने का सीधा मतलब मुख्यमंत्री की कार्यशैली पर अंगुली उठाने जैसा है। जब वे विपक्ष में होते हैं तो सुरक्षा बलों के जरिए सरकार पर अंगुली उठाना बहुत आसान होता है। यही कारण है कि आज लोग इन कश्मीरी नेताओं के बयानों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि इनके बयान सत्ता में आने और बाहर हो जाने के साथ बदलते रहते हैं।
महबूबा मुफ्ती
वर्ष 2016 में कुख्यात आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद जब घाटी विशेषकर दक्षिण कश्मीर में हालात खराब हुए और सैन्य शिविर पर हमला करने के दौरान जवाबी कार्रवाई में कुछ युवक मारे गए तो तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि सैन्य शिविर में क्या टॉफियां और दूध मिल रहा था। पत्थरबाज वहां गए ही क्यों? इस प्रकार जो महबूबा मुफ्ती उस समय सेना की कार्रवाई को न्यायोचित ठहरा रही थीं, सत्ता से बाहर हो जाने पर उन्हें हर सैन्य कार्रवाई में खोट नजर आती है।
उमर अब्दुल्ला
यही हाल नैशनल कांफ्रैंस अध्यक्ष उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला का है। तत्कालीन मुख्यमंत्री एवं यूनिफाइड कमांड का चेयरमैन होने के नाते वर्ष 2010 की भीषण पत्थरबाजी के दौरान हालात पर काबू पाने के लिए उमर अब्दुल्ला ने सुरक्षा बलों का खूब इस्तेमाल किया। उस समय उमर को यह न्यायोचित लग रहा था, जबकि महबूबा इस पर हाय-तौबा मचाने का कोई मौका नहीं छोड़ रही थीं।
डा. फारुक अब्दुल्ला
इसी प्रकार, जो डा. फारूक अब्दुल्ला आज कभी आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी जाहिर करते हैं तो कभी पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत का दावा छोड़ देने की बात करते हैं, पहले मुख्यमंत्री और फिर केंद्रीय मंत्री रहते हुए उनके लिए भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से खूबसूरत कुछ था ही नहीं। कश्मीर से बाहर देश के अन्य लोगों में किसी भी मंच से कभी वह भारत माता की जय के नारे लगाते हैं तो कभी दूसरे धर्मों के कार्यक्रमों में सक्रियता दिखाकर साम्प्रदायिक सद्भाव का उदाहरण बन जाते हैं।