‘राजनीतिक व भावनात्मक’ मोड़ ले चुका है आरक्षण का मुद्दा

Edited By ,Updated: 12 Sep, 2015 12:22 AM

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अफसोस की बात है कि पटेल समुदाय (पाटीदार), जो किसी समय प्रचंड आरक्षण विरोधी आंदोलन का हिस्सा था, अब खुद अपने लिए शिक्षण संस्थानों तथा सरकारी नौकरियों में ओ.बी.सी. कोटे के अन्तर्गत आरक्षण की मांग कर रहा है।

(हरि जय सिंह): अफसोस की बात है कि पटेल समुदाय (पाटीदार), जो किसी समय प्रचंड आरक्षण विरोधी आंदोलन का हिस्सा था, अब खुद अपने लिए शिक्षण संस्थानों तथा सरकारी नौकरियों में ओ.बी.सी. कोटे के अन्तर्गत आरक्षण की मांग कर रहा है। कोटे को लेकर उनके आंदोलन का नेतृत्व एक युवा कॉमर्स ग्रैजुएट हार्दिक पटेल कर रहे हैं, जो अपने तीखे भाषणों से अहमदाबाद तथा गुजरात में अन्य स्थानों पर लाखों की संख्या में समर्थकों को आकर्षित करने में सक्षम हैं। 

इतना ही नहीं, वह अपने आरक्षण के जाल को नई दिल्ली तथा अन्य स्थानों पर जाटों, गुज्जरों व अन्य लोगों तक फैलाने का प्रयास भी कर रहे हैं। यह एक अति महत्वाकांक्षा का मामला है जिसे हड़बड़ी में अंजाम दिया गया है। युवा पटेल का असल खेल क्या है? क्या हम इसे गुजरात के स्ट्रांगमैन  नरेन्द्र मोदी की गांधीनगर में अनुपस्थिति के चलते धड़ेबंदी की राजनीति के हिस्से के तौर पर ले सकते हैं? या फिर यह अमित शाह व प्रधानमंत्री मोदी की गुजरात में पहले ही सिकुड़ रही कांग्रेस को और कमजोर करने की रणनीति है? वर्तमान सूचनाओं की पेचीदगियों के चलते यह जानना कठिन है कि सत्ता का कौन सा पहिया किसके इशारे पर चल रहा है, किस उद्देश्य से और किसके हित के लिए? अभी हमारा इसके पीछे के खिलाडिय़ों को पूरी तरह से जानना बाकी है। 
 
पटेल समुदाय उत्तरी तथा मध्य गुजरात के साथ-साथ विदेशों में भी समृद्ध है। पटेलों के इस अमीर वर्ग को ‘किंगशिप’ के लिए जाना जाता है। इसलिए इन वर्गों में समृद्धि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को हवा देती है। निश्चित तौर पर पटेलों के सभी वर्ग समृद्ध नहीं हैं। पटेलों का एक वर्ग सूरत, सौराष्ट्र तथा राज्य के अन्य हिस्सों में हीरा उद्योग में कर्मचारी है। यहां उल्लेखनीय है कि हीरा उद्योग इन दिनों मंदी के दौर में है। एक चौकस राज्य प्रशासन को आंदोलन व उससे संबंधित मुद्दों को बेहतर तरीके से निपटने में सक्षम होना चाहिए। इसे ‘निर्देशों’ के लिए नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी की ओर देखने की बजाय अपने तौर पर काम करना चाहिए था। 
 
जो भी हो, राज्य के मुख्यमंत्री तथा उनके मंत्रियों को मोदी की छाया से बाहर आकर बदलती जमीनी हकीकतों के अनुसार राज्य को चलाना चाहिए और आरक्षण समर्थक तथा विरोधी मामलों के भंवर में नहीं फंसने देना चाहिए। यहां तक कि पुलिस भी रैली वाले दिन हंसक हो उठी और उसने आंदोलनकारी पटेलों की कारों तथा स्कूटरों को तोड़ दिया। चूंकि पुलिस का एक बड़ा वर्ग राबडिय़ों के ओ.बी.सी. ग्रुप से संबंध रखता है, इसलिए वे इस विचार को पचा नहीं सकते कि पटेल ओ.बी.सी. कैटेगरी के अन्तर्गत आरक्षण के उनके हिस्से को काट रहे हैं। इससे आरक्षण मामले की पेचीदगियों का महत्व पता चलता है। 
 
पीछे देखें तो पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल ब्रांड ने 1985 में गुजरात में दंगों को हवादी थी। तत्कालीन तेज-तर्रार मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने जातिवादी गणना करते हुए राज्य के शिक्षण संस्थानों में कुल आरक्षण 21 प्रतिशत से बढ़ाकर 45 प्रतिशत कर दिया। उन्होंने चुनावों के उद्देश्य से अपनी प्रसिद्ध ‘खाम’ (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी, मुस्लिम) को लागू किया। इसका हिन्दुओं ने विरोध किया, जो योग्यता तथा ऊंचे अंक पाने के बावजूद चिकित्सा तथा इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा हेतु अपने लिए दरवाजे बंद पाते हैं।
 
पूर्व मुख्यमंत्री सोलंकी का अब कहना है कि हार्दिक पटेल का चमत्कार नहीं चलेगा। उनके विचारों से यह समझा जा सकता है कि आज का गुजरात कल के गुजरात से अलग है। नरेन्द्र मोदी की सफलता ने राज्य में विभिन्न स्तरों पर महत्वाकांक्षा की एक लहर पैदा कर दी। यह अलग मामला है कि इस प्रक्रिया में महात्मा गांधी तथा सरदार पटेल के मूल संदेश राजघाट पर रस्मी कार्रवाइयों तथा भारत में लौहपुरुष की सबसे लंबी प्रतिमा बनाने के प्रस्तावों में गुम हो गए हैं। प्रधानमंत्री मोदी गुजरात से इन दो विख्यात बुद्धिजीवियों के कहीं नजदीक भी नहीं हैं। 
 
जहां तक आरक्षण का मामला है, कोई भी सही सोच वाला भारतीय सामाजिक तथा आॢथक रूप से पिछड़े वर्गों के अधिकारपर प्रश्र नहीं उठा सकता। इसके साथ हीहमेंयह भी सुनिश्चित करना होगा कि आरक्षणकेलाभ समाज के सबसे निचले तबकों तक बराबर पहुंचें। यह तभी संभव हो सकता है यदि एस.सी., एस.टी. तथा अन्य पिछड़ी जातियोंके ‘सम्पन्न लोग’ बाकी गरीब बचे लोगों के लिए गर्वपूर्ण तरीके से आरक्षण के लाभ छोड़ दें। 
 
दुर्भाग्य से हाल ही के वर्षों में आरक्षण का पूरामुद्दा राजनीतिक तथा भावनात्मक मोड़ ले गया है। ऐसी व्यवस्था में पहला शिकार इसका मूल उद्देश्य ही हो रहा है। 
 
संभवत: हमें आरक्षण की इस पूरी अवधारणा पर राष्ट्रीय सर्वसम्मति बनाने और सदियों पुरानी जातिप्रथा को खत्म करने की तरफ काम करने की जरूरत है। हमें कठिन स्थितियों से युक्तिपूर्ण तरीके से निपटते हुए योग्यता के आधार पर एक समानतावादी समाज की स्थापना पर कार्य करने बारे सोचना चाहिए। यह तभी संभव है यदि हम एक नए भविष्य के संदर्भ में नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के लिए सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक पिछड़ेपन को देखना शुरू करें। यद्यपि समस्या की जड़ में नौकरियां तथा मैडीकल, इंजीनियरिंग व उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों में सीटों के लिए बढ़ती जा रही मांग के मद्देनजर शुरूआत के लिए बहुत कम विकल्प बचे हैं। 
 
हमारे सामने चुनौती काफी बड़ी है। हमने लालू प्रसाद यादवों तथा मायावतियों को उठते, और ऊंचा उठते देखा है, जो हमारे समाज के सबसे ताकतवर तथा अमीर लोगों के साथ कंधा टकराते हैं, यहां तक कि भव्य शादियों तथा जन्मदिन पार्टियों के तरीके से। उन लोगों का क्या जो उनमें से पीछे रह गए हैं या ‘गरीब’ पटेल, जाट, गुज्जर और यहां तक कि मुसलमान जो अभी भी बरतरफी तथा अन्याय के बोझ तले पिस रहे हैं? 
 
प्रधानमंत्री मोदी के थिंक टैंक को इन सभी संबंधित मामलों पर गंभीर विचार करने की जरूरत है और देखना होगा कि कैसे समाज के सभी वर्गों को आर्थिक, शैक्षणिक तथा सामाजिक रूप से उठने के लिए बराबर अवसर सुनिश्चित करके भारत को श्रेष्ठता के रास्ते पर डाला जा सकता है।
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