Edited By Anil dev,Updated: 29 Dec, 2018 01:05 PM
देश में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केंद्र में उसका पहला तजुर्बा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अब तक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा। सबसे...
नई दिल्ली (नवोदय टाइम्स): देश में गठबंधन राजनीति के बीज 1967 से पहले ही पड़ चुके थे, पर केंद्र में उसका पहला तजुर्बा 1977 में हुआ। फिर 1989 से लेकर अब तक इस दिशा में लगातार प्रयोग हो रहे हैं और लगता है कि 2019 का चुनाव गठबंधन राजनीति के प्रयोगों के लिए भी याद रखा जाएगा। सबसे ज्यादा रोचक होंगे, चुनाव-पूर्व और चुनाव-पश्चात इसमें आने वाले बदलाव। वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी का विश्लेषण...
तीसरे मोर्चे या थर्ड फ्रंट का जिक्रपिछले चार दशक से बार-बार हो रहा है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि यह पूरी तरह बन गया हो और ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि इसे बनाने की प्रक्रिया में रुकावट आई हो। फर्क केवल एक आया है। पहले इसमें एक भागीदार जनसंघ (और बाद में भाजपा) हुआ करता था। अब उसकी जगह कांग्रेस ने ले ली है। यानी तब मोर्चा कांग्रेस के खिलाफ होता था, अब भाजपा के खिलाफ है।
सवाल यह है कि गठबंधन होगा या नहीं?
फिलहाल सवाल यह है कि गठबंधन होगा या नहीं? और हुआ तो एक होगा या दो? पिछले तीन दशक से इस फ्रंट के बीच से एक नारा और सुनाई पड़ता है, वह है ‘गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस’ गठबंधन का। इस वक्त ‘गैर-भाजपा महागठबंधन’ और ‘गैर-भाजपा, गैर-कांग्रेस संघीय मोर्चे’ दोनों की बातें सुनाई पड़ रही हैं। अभी बना कुछ भी नहीं है और हो सकता है राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और यूपीए के अलावा कोई तीसरा गठबंधन राष्ट्रीय स्तर पर बने ही नहीं। अलबत्ता क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गठबंधनों की संभावनाएं इस वक्त तलाशी जा रही हैं। साथ ही एनडीए और यूपीए के घटक दलों की गतिविधियां भी बढ़ रही हैं। सीट वितरण का जोड़-घटाव लगने लगा है और उसके कारण पैदा हो रही विसंगतियां सामने आने लगी हैं। कुछ दलों को लगता है कि हमारी हैसियत अब बेहतर हुई है, इसलिए यही मौका है दबाव बना लो।
आना-जाना शुरू
एनडीए के नजरिये से इस साल तेदेपा ने उसका साथ छोड़ा है। हाल में बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएसपी को अलग हुई है। दूसरी तरफ बिहार में जेडीयू की एनडीए में वापसी हुई है, जिसके कारण गणित बदला है। उत्तर प्रदेश में अपना दल के नेतृत्व ने भी हल्की-सी जुम्बिश ली और फिर चुप्पी साध ली। महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ उसके गठबंधन को लेकर कयास चल ही रहे हैं पर क्या शिवसेना अलग होकर अपने लिए पर्याप्त सीटें बटोर पाएगी? शिवसेना को ममता बनर्जी का समर्थन भी मिल रहा है, पर क्या शिवसेना ममता के साथ खुलेआम जा पाएगी? ममता की छवि को देखते हुए क्या शिवसेना का वोटर इस गठबंधन को स्वीकार करेगा? विचारधारा, रणनीति, व्यक्तिगत हित और संगठनात्मक हितों से जुड़े तमाम सवाल अनुत्तरित हैं। ऐसे ही कयास उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के गठबंधन को लेकर हैं। वहां सपा-बसपा गठबंधन तो घोषित हो गया है, पर कांग्रेस के बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं है। वस्तुत: इस वक्त जो कुछ भी चल रहा है, उसका सिद्धांत और विचारधारा से जितना रिश्ता है, उससे ज्यादा यह शुद्ध हितों का मामला है। असली सवाल है कि सीटें जीतने में कौन मददगार होगा? और सीटें जीतने तक की बात नहीं है, चुनाव के बाद सरकार बनाने की संभावनाएं क्या बनेंगी? पार्टियों के रणनीतिकार इन बारीक बातों पर विचार में मसरूफ हैं।
बिहार से शुरुआत
महागठबंधन की चालू अवधारणा सन 2014 की बीजेपी की महा-विजय के बाद 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में विकसित हुई। वहां से यह विचार सन 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ले जाने की कोशिश हुई, पर केवल सपा और कांग्रेस का गठबंधन ही हो पाया, वह भी बुरी तरह विफल रहा। पिछले साल के अंत में गुजरात विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को गठबंधन की जरूरत महसूस नहीं हुई। इस साल अप्रैल-मई में कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में भी कांग्रेस ने अकेले ही लडऩा पसंद किया और जेडीएस को मुंह नहीं लगाया पर चुनाव परिणाम आते ही पार्टी ने झपटकर मुख्यमंत्री के रूप में एचडी कुमारस्वामी को स्वीकार करते हुए जेडीएस के साथ दोस्ती कर ली। चुनाव परिणाम आने के दिन 12 बजे तक गठबंधन नहीं था। फिर अचानक गठबंधन बन गया। कर्नाटक विधान सौध के मंच पर विरोधी दलों के नेताओं ने हाथ उठाकर वही फोटो फिर से खिंचाई, जो इसके पहले कई बार खिंचाई जा चुकी है। कर्नाटक की उस एकता से एकबारगी ऐसा लगा कि अब राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बन ही जाएगा, जिसमें कांग्रेस की बड़ी भूमिका होगी पर उसी शपथ-ग्रहण समारोह में उस एकता के अंतर्विरोध भी नजर आए। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, एचडी देवेगौड़ा के व्यक्तिगत निमंत्रण पर भी उस शपथ-समारोह में नहीं आए।
फेडरल फ्रंट की घोषणा
उन्हीं दिनों तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने फेडरल फ्रंट की घोषणा भी की थी, जिसे ममता बनर्जी का समर्थन मिला था। बहरहाल, चंद्रशेखर राव भी कर्नाटक के शपथ ग्रहण समारोह में सिर्फ इसलिए नहीं आए कि उन्हें कांग्रेसी नेताओं के साथ खड़ा होना पड़ेगा। तेलंगाना में कांग्रेस उनका प्रतिस्पर्धी दल है। इन सभी दलों का एक गठबंधन नहीं बन सकता। मसलन, येचुरी और ममता बनर्जी की पार्टियां एक साथ नहीं आएंगी। द्रमुक और अन्नाद्रमुक एक गठबंधन में नहीं रहेंगे। राव ने अपने कार्ड सावधानी के साथ खेले और अपने राज्य में समय से पहले विधानसभा चुनाव करा लिए और भारी जीत भी हासिल कर ली। अब असली चुनौती आंध्र में तेलुगू देशम के सामने है। तेदेपा ने तेलंगाना में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था। आंध्र में भी होगा। देखना है कि आंध्र में बीजेपी का गठबंधन किसके साथ होगा। कहा जा रहा है कि इस वक्त वहां वाईएसआर कांग्रेस का जोर है। यदि वहां तेदेपा की हार हुई, तो इस गणित में नुकसान उठाने वाली पार्टी साबित होगी। उसे तेलंगाना में पहले ही कुछ नहीं मिला।
महागठबंधन बना तो क्या होगा?
पिछले कुछ समय से टीवी चैनलों पर इस बात के कयास लगाए जा रहे हैं कि 2019 के परिणाम कैसे हो सकते हैं। इन कयासों की बुनियाद दो आधारों पर होती है। भाजपा के खिलाफ गठबंधन बने, तब और न बने तब। इन कयासों का आधार 2014 और बाद के चुनाव हैं। इन सर्वेक्षणों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। निष्कर्षों का सरलीकरण होता है। सन 2014 के चुनाव में 6 राष्ट्रीय, 45 प्रादेशिक और 419 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियां उतरी थीं। तब बीजेपी को 31.3 फीसदी और कांग्रेस को 19.5 फीसदी वोट मिले थे। इनके अलावा बीएसपी (4.2), तृणमूल (3.8), अद्रमुक (3.3), सपा (3.2), सीपीएम (3.2), तेदेपा (2.5), शिवसेना (1.9), द्रमुक (1.8) और बीजद (1.7) इन नौ दलों को 25.6 फीसदी वोट मिले थे। इनमें सभी दल इस गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। शेष 23.6 फीसदी वोट अन्य दलों और निर्दलीयों को मिले थे। देश का गणित इतना सरल नहीं है, जितना समझा या समझाया जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में कुल 42.30 प्रतिशत वोट मिले थे, जिनके सहारे उसे 73 सीटें मिलीं।
कांग्रेस, सपा और बसपा को मिले वोटों को जोड़ा जाए तो होते हैं 49.3 फीसदी
कांग्रेस, सपा और बसपा को मिले वोटों को जोड़ा जाए तो 49.3 फीसदी होते हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के वोट 39.7 फीसदी रह गए, जबकि सपा, बसपा और कांग्रेस के सकल वोट 50.2 फीसदी हो गए। इस स्थिति में बेशक बीजेपी की सीटें कम होंगी, पर कितनी कम होंगी इसकी गणना आसान नहीं है। वस्तुत: जो वोट कांग्रेस को मिले, उनमें कुछ वोट सपा और बसपा के विरोधी वोट भी थे। इसी तरह बसपा को मिले वोटों में कांग्रेस विरोधी वोट भी थे। तीनों पार्टियों के एक साथ आने पर कुछ वोट छिटकेंगे भी। फिर भी माना जा रहा है कि बीजेपी को 40 या उससे भी ज्यादा सीटों का नुकसान होगा। कुछ ऐसा ही गणित दूसरे राज्यों में भी है। वस्तुत: इस सोशल इंजीनियरी में काफी छोटे कारक भी महत्वपूर्ण होंगे। मसलन अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में कुछ छोटे जातीय समूह होते हैं, जो हार-जीत में अंतर पैदा करते हैं। गठबंधन राजनीति में ऐसे समूहों का महत्व भी होता है। बीजेपी के खिलाफ पार्टियों के एक साथ आने पर उनके कुछ समर्थक साथ भी छोड़ेंगे। पार्टियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता भी है। सपा और बसपा के वोटर ऐसे भी हैं, जिनकी एक-दूसरे से नाराजगी है। कर्नाटक में कांग्रेस के बहुत से वोटरों को जेडीएस पसंद नहीं है और जेडीएस के बहुत से वोटर कांग्रेस को नापसंद करते हैं। ऐसा कोई सीधा गणित नहीं है कि पार्टियों की दोस्ती हुई, तो वोटरों की भी हो जाएगी।