Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Nov, 2019 07:15 AM
एक बार सूर्यदेव के मन में विचार आया कि मैं हर दिन नियमपूर्वक नि:स्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करता हूं। तो क्यों न एक बार मनुष्यों के बीच जाकर देखूं कि आखिर लोग मेरी इस सेवा के बारे में क्या सोचते हैं?
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एक बार सूर्यदेव के मन में विचार आया कि मैं हर दिन नियमपूर्वक नि:स्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करता हूं। तो क्यों न एक बार मनुष्यों के बीच जाकर देखूं कि आखिर लोग मेरी इस सेवा के बारे में क्या सोचते हैं? सूर्यदेव वेष बदलकर मनुष्यों के बीच आ पहुंचे। इन्होंने सूर्य की सेवा के बारे में लोगों से पूछना शुरू किया।
एक ने कहा कि बेचारे को छुट्टी भी नहीं मिलती। दूसरे ने कहा अभागे को एक दिन की जिंदगी मिलती है, रोज जीता और रोज मरता है। तीसरे ने उन्हें आग उगलने वाला निर्जीव पिण्ड मात्र बताया। लोगों की जैसी आदत है, निन्दा करने व दोष ढूंढने की, इसके अनुसार वे सूर्य के संबंध में भी बातें कर रहे थे। प्रशंसा करने वाला एकाध ही मिला।
ज्यादातर तो निन्दा करने वाले ही थे। सूर्य नारायण को मनुष्यों के इस व्यवहार पर बहुत दुख हुआ। वह सोचने लगे कि जिनके लिए मैं इतना कष्ट सहता हूं और नि:स्वार्थ सेवा में लगा रहता हूं उनके मुख से दो शब्द प्रशंसा के भी न निकले। ऐसे लोगों की सेवा करना व्यर्थ है। उन्होंने दूसरे दिन उदय होने से इंकार कर दिया।
उनकी पत्नी ने जब पतिदेव के कर्म विमुख होने का समाचार सुना तो उनके पास पहुंची और विनीत भाव से कहा कि घटिया लोगों का काम पत्थर फैंकना है और महान लोगों का काम उन्हें झेलना है। कोई कितने ही पत्थर फैंके, समुद्र में वे डूबते ही चले जाते हैं। सहनशीलता उन्हें उदरस्थ करती जाती है। पत्थर का प्रहार तो घड़े नहीं सह पाते, वे एक ही चोट में टूट जाते हैं। भगवन्, आप समुद्र-जैसे हैं, घड़े का अनुकरण क्यों करते हैं? सूर्यदेव ने अपनी गरिमा को समझा और अपने रथ पर सवार होकर हर दिन की तरह यात्रा पर चल दिए।