वडोदरा से वायनाड वाया बनारस: दो सीटों से चुनाव लड़ने की कहानी

Edited By Anil dev,Updated: 01 Apr, 2019 10:37 AM

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कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस बार अमेठी के साथ साथ केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़ेंगे।  हालांकि उन्हें कर्नाटक से भी चुनाव लडऩे का न्यौता था। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 2014 में  गुजरात की वडोदरा और उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट...

जालंधर (संजीव शर्मा ): कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस बार अमेठी के साथ साथ केरल की वायनाड सीट से भी चुनाव लड़ेंगे।  हालांकि उन्हें कर्नाटक से भी चुनाव लडऩे का न्यौता था। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 2014 में  गुजरात की वडोदरा और उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट से चुनाव लड़ा था। अब के राहुल की दो सीटों से लडऩे की घोषणा ने एक बार फिर से उस बहस को मुखर कर दिया है कि दो सीटों से चुनाव लडऩा कितना नैतिक है। खासकर तब जब दोनों ही सीटों पर जीत हासिल हो और बाद में एक जगह फिर से उपचुनाव करवाना पड़े। आलोचकों का मानना है कि इससे जनता का पैसा बर्बाद होता है। खुद 2018 में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान निर्वाचन आयोग मान चुका है कि यह एक गैर जरूरी खर्च को जन्म देने वाला है। लेकिन इसके बावजूद अभी तक कोई ठोस कानून इसे लेकर नहीं बन पाया है। ऐसे में अब एक बार फिर दो जगहों से लडऩे को लेकर बहस छिड़ गई है। इस बहस का क्या अंत होता है यह तो समय ही बताएगा लेकि इस बहाने आज हम उन नेताओं की चर्चा कर लेते हैं जिन्होंने एक साथ दो-दो सीटों से चुनाव लड़ा। राहुल और मोदी ऐसा करने वाले इकलौते नेता नहीं हैं। ऐसा करने वालों की एक लम्बी फेरहिस्त है, दो नेता तो ऐसे भी हैं जिन्होंने तीन -तीन सीटों से एकसाथ चुनाव लड़ा था । 

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पहली बारी अटल  बिहारी  
इस परम्परा की शुरुआत दूसरे ही आम चुनाव में बीजेपी के शिखर पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी।  1957 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी ने यूपी के तीन निर्वाचन क्षेत्रों बलरामपुर, मथुरा और लखनऊ  से एकसाथ चुनाव लड़ा था। बलरामपुर में वे जीत गए थे, जबकि मथुरा और लखनऊ में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। मथुरा में तो उनकी जमानत भी नहीं बच पाई थी। बलरामपुर से जीतने के बाद जनसंघ ने  युवा अटल बिहारी को विपक्षी नेता के रूप में लोकसभा में पेश किया था। वाजपेयी ने बाद में 1991 में विदिशा और लखनऊ से एक साथ चुनाव लड़ा था। उनके प्रमुख साथी रहे लालकृष्ण आडवाणी ने भी 1991 में नई दिल्ली और गांधीनगर से एकसाथ चुनाव लड़ा था।  

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कांग्रेस में पहल करने वाली खुद इंदिरा गांधी
बीजेपी (जनसंघ) में यह शुरुआत अगर अटल बिहारी वाजपेयी ने की तो कांग्रेस में ऐसा करने का श्रेय इंदिरा गांधी को जाता है। इमरजेंसी की मार के चलते  1977 में इंदिरा गांधी को अपनी परम्परागत सीट रायबरेली में आश्चर्यजनक हार का सामना करना पड़ा। बाद में 1980 में इंदिरा गांधी ने आंध्र प्रदेश की मेडक  (अब तेलंगाना) और रायबरेली से एकसाथ चुनाव लड़ा था । इंदिरा गांधी ने इस बार दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से जीत हासिल की और मेडक सीट छोड़ दी थी।  इंदिरा गाँधी के बाद 1996 के आम चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने भी दो जगहों- आंध्रप्रदेश की नांद्याल और ओडिशा की बेरहामपुर सीट से चुनाव लड़ा था। दोनों जगह से जीतने पर उन्होंने नांद्याल सीट खाली कर दी थी, जिस पर उपचुनाव हुआ था।  विदेशी मुद्दे पर बीजेपी के प्रखर विरोध का सामना कर रहीं सोनिया गांधी ने 1999 में बेल्लारी और अमेठी से एकसाथ चुनाव लड़ा था। दोनों जगह जीतने पर उन्होंने बेल्लारी सीट खाली कर दी थी।   

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जब आडवाणी की सीट से भी लड़े अटल 
राम जन्मभूमि आंदोलन से बीजेपी और देश की सियासत में लाल कृष्ण आडवाणी अपना एक ख़ास मुकाम बना चुके थे। एक समय एनडीए भी उन्हें प्रधानमंत्री कैंडिडेट मान चुका था। लेकिन बाद में परिस्थितियां बदलीं और एक समय ऐसा भी आया जब आडवाणी की सीट भी अटल के खाते में  जा पहुंची। दरअसल  1996 में हवाला कांड में अपना नाम आने के कारण लालकृष्ण आडवाणी गांधीनगर से चुनाव नहीं लड़े।  इस स्थिति में अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ सीट के साथ-साथ गांधीनगर से भी चुनाव लड़ा और दोनों ही जगहों से जीत हासिल की। हालांकि इसके बाद से वाजपेयी ने लखनऊ को अपनी कर्मभूमि बना लिया। वर्ष 1998, 1999 और 2004 का लोकसभा चुनाव लखनऊ सीट से जीतकर सांसद बने।

मुलायम, लालू भी नहीं पीछे 
प्रधानमंत्री बनने के आकांक्षी रहे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव ने भी 2014 में भी आजमगढ़ और मैनपुरी से चुनाव लड़ा था। इससे भी पहले उनके बेटे अखिलेश यादव 2009 में फिऱोज़ाबाद और कन्नौज सीट से  एकसाथ जीते थे।  इसी तरह आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने 2009 में सारण और पाटलीपुत्र  से एकसाथ चुनाव लड़ा था।  इसी तरह क्षेत्रीय नेताओं में तेलुगु देशम पार्टी के संस्थापक एन टी रामाराव ने 1985 के विधानसभा चुनावों में गुडीवाड़ा, हिंदूपुर और नलगोंडा तीन सीटों पर चुनाव लड़ा और सभी में जीत हासिल की। फिर हिंदूपुर को बरकरार रखा और अन्य दो को खाली कर दिया जिसके बाद वहां उपचुनाव हुए।

ताऊ ने भी की थी तिहरी  कोशिश  
उप-प्रधानमंत्री रहे चौधरी देवी लाल 1989  के चुनाव में  रोहतक और राजस्थान की सीकर सीट से जीते थे।  इसी चुनाव में वे पंजाब के फिऱोज़पुर से भी लड़े  थे लेकिन हार गए थे । फिऱोज़पुर में वे तीसरे नंबर पर रहे थे और करीब 70 हज़ार वोट से हारे थे। हालांकि रोहतक में उन्होंने भूपेंद्र हुड्डा और सीकर में बलराम झाखड़ जैसे दिग्गज को हराया था।  

चुनाव आयोग को पसंद नहीं यह बात 
जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 33 के मुताबिक नेताओं को एक से अधिक सीटों पर लडऩे की अनुमति  मिली थी। नेताओं के एक से अधिक सीटों से चुनाव लडऩे को लेकर जब सवाल उठने लगे तो तंत्र हरकत में आया। इसके बाद 1996 में धारा 33 के साथ (7) जोड़कर इसे दो सीटों तक सीमित कर दिया गया। मूल विधेयक में संशोधन किया गया और कानून ये बना कि एक उम्मीदवार दो सीटों पर ही चुनाव लड़ सकता है। अगर वे दोनों पर जीत दर्ज करते हैं तो उम्मीदवारों को केवल एक सीट बरकरार रखनी होती है और दूसरी उपचुनाव के लिए जाती है। सीट 10 दिन के भीतर खाली करनी होती है।   

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