मुफ्त में नहीं मिला देश को 'संडे का वीकली ऑफ', भारतीयों को लड़नी पड़ी थी लंबी लड़ाई

Edited By Seema Sharma,Updated: 20 Sep, 2020 10:14 AM

country did not get free sunday weekly off

संडे यानि कि फनडे, रविवार का दिन बड़ा सकून भरा-सा लगता है। इस दिन न तो बच्चों को स्कूल जाने की टेंशन होती है और कई कर्मचारियों को न दफ्तर जाने की। रविवार का दिन सबको स्पेशल-सा लगता है। कई बार तो मन में आता है कि हफ्ते में सिर्फ एक संडे क्यों है...

नेशनल डेस्कः संडे यानि कि फनडे, रविवार का दिन बड़ा सकून भरा-सा लगता है। इस दिन न तो बच्चों को स्कूल जाने की टेंशन होती है और कई कर्मचारियों को न दफ्तर जाने की। रविवार का दिन सबको स्पेशल-सा लगता है। कई बार तो मन में आता है कि हफ्ते में सिर्फ एक संडे क्यों है लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक ऐसा भी समय था कि न तो हफ्ते की शुरुआत सोमवार से होती थी और न ही हफ्ता खत्म रविवार को होता था। कामगारों को हर रोज काम पर जाना होता था। उनको आज की तरह कोई विकली ऑफ नहीं होता था। आज तो कई कंपनियों में वर्किंग डे सिर्प 5 दिन के रह गए हैं। क्या आप जानते हैं कि भारत में लोगों को संडे की छुट्टी कब और क्यों मिलनी शुरू हुई। शायद आज की जनरेशन को पता भी नहीं होगा कि एक रविवार की छुट्टी दिलाने के लिए किसको कितना संघर्ष करना पड़ा। 

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ब्रिटिश राज में हर दिन वर्किंग डे
अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में कब्जे से पहले ज़्यादातर किसान और कृषि श्रमिक काम करते थे। तब नियमित या साप्ताहिक अवकाश जैसा कोई चलन नहीं था, लोगों को जरूरत के हिसाब से छुट्टी मिल जाती थी। जब अंग्रेजों ने भारत में मिलों और कारखानों की स्थापनाएं कीं तो भारतीय गरीबों का शोषण शुरू हुआ। भारत में व्यवस्था इतनी खराब हो गई कि खून चूसने तक की हद तक लोगों से काम लिया जाता था। मजदूरों के लिए दो शिफ्टों में काम शुरू हुआ। काम के बीच मजदूरों को न तो खाना खाने की इजाजत थी और न ही शोच जाने की। भारत में अंग्रेजों के आगमन के साथ ही चर्च बन चुके थे। अंग्रेज तो रविवार को चर्च चले जाते थे और उनका आधा दिन फुरसत में कट जाता था लेकिन भारतीय गरीब मजदूरों को तो वो भी नसीब नहीं था। उनको पूरा दिन काम करना पड़ता था।

 

इन्होंने शुरू किया अभियान
बॉम्बे टेक्सटाइल मिल में बतौर स्टोर कीपर तैनात नारायण मेघाजी लोखंडे ने मजदूरों की तकलीफों को काफी करीब से देखा था। ब्रिटिश राज में मजदूरों के बहुत बुरे हाल थे। मजदूरों को न तो स्वास्थ सुविधाएं मिलती थी और न ही काम के हिसाब से वेतन। मजदूरों के बुरे हालातों की बात अंग्रेज़ों तक पहुंचाने के लिए 1880 में लोखंडे ने पहले 'दीन बंधु' नाम से एक अखबार निकाला और उसमें मज़दूरों की परेशानियों व अधिकारों की बातें लिखीं। 'बॉम्बे हैंड्स एसोसिएशन' के जरिए लोखंडे ने 1881 में पहली बार कारखाने संबंधी अधिनियम में बदलावों की मांग रखी, जब उनकी मांगें सिरे से खारिज की गईं, तब संघर्ष शुरू हुआ। 1884 में लोखंडे इस एसोसिएशन के प्रमुख भी बने और मजूदरों के ​अधिकारों के लिए संघर्ष को गति मिली। 
श्रमिक सभा में मजदूरों के लिए एक प्रस्ताव तैयार किया, इसमें ये मांगें रखी गईं-

- मजदूरों के लिए रविवार को अवकाश।
- भोजन के लिए काम के बीच में समय मिले।
- काम करने के घंटे यानी शिफ्ट का समय फिक्स हो।
- काम के दौरान दुर्घटना की स्थिति में मजदूरों को सैलकी के साथ छुट्टी भी मिले।
- दुर्घटना में मजदूर की मौत की स्थिति में उसके आश्रितों को पेंशन दी जाए।

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इस मांग पत्र पर साढ़े पांच हजार से ज्यादा मजूदरों ने दस्तखत किए तो मिल मालिक और ब्रिटिश हुकूमत ने इस आंदोलन को कुचलने का फैसला किया। मजदूरों को बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया, उनके बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया। इसके बाद लोखंडे का आंदोलन और बढ़ गया और महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश में फैल गया। लोखंडे की श्रमिक सभा में बॉम्बे के रेसकोर्स मैदान में देश के करीब 10 हजार मजदूर जुटे और मिलो में कामबंदी का ऐलान कर दिया।

 

इस आदोलन के बाद ब्रिटिश राज के तेवर कुछ ठंडे पड़े और 10 जून 1890 के दिन 'रविवार' को मजदूरों के लिए साप्ताहिक अवकाश घोषित किया गया। साथ ही मजदूरों के काम करने के घंटे, भोजन आदि के लिए समय भी मंजूर हुआ, उसके बाद मजदूरों को लंच ब्रेक मिलना शुरू हुआ जो आज भी जारी है। रविवार की छुट्टी के लिए मज़दूरों ने संघर्ष किया और यह दिन क्रांति का इतिहास है। आज तो संडे मतलब मस्ती, मनोरंजन, घूमना-फिरना है लेकिन उस समय रविवार के मतलब थे- सेहत का ख्याल रखना, सामाजिक और देशहित के कामों में समय देना आदि। स्पष्ट है कि रविवार की छुट्टी भारतीयों को ऐसे ही नहीं मिली है। 

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