संदेह के घेरे मेंं हैं वयोवृद्ध फतेहउल्लाह गुलेन

Edited By ,Updated: 16 Jul, 2016 02:20 PM

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तुर्की की पुलिस ने तख्तापलट की कोशिश को नाकाम कर दिया है। वहां की सरकार का इस्लाम की ओर कुछ ज्यादा ही झुकाव होना,

तुर्की की पुलिस ने तख्तापलट की कोशिश को नाकाम कर दिया है। वहां की सरकार का इस्लाम की ओर कुछ ज्यादा ही झुकाव होना, अमरीका से संबंध खराब होना जैसे प्रमुख कारण बगावत के लिए जिम्मेदार ठहराए जा रहे हैं। इनमें एक शख्स का नाम भी उभर सामने आ रहा हे। वह है फतेहउल्लाह गुलेन। तुर्की के राष्ट्रपति रिसेप तईप एर्दोगन और प्रधानमंत्री बिनाली युल्दरम ने आशंका जताई है कि इस नाकाम प्रयास के पीछे गुलेन का ही हाथ है। हालांकि गुलेन से जुड़े संगठन ने पीएम के इन आरोपों से इनकार किया है। गुंलेन ने यह संदेश जरूर दिया है कि तुर्की में चुनाव पारदर्शी तरीके से होने चाहिए। तुर्की में यह पहली बार नहीं हुआ है, इससे पहले भी तख्तापलट के कई प्रयास किए जा चुके है।

यह इस्लामिक धर्मगुरु तुर्की में नहीं रहते हैं, उन्हें वहां से निष्कासित कर दिया गया था। वह अमेरिका के पोकोनो पर्वत इलाके में रहते हैं। उनका लोगों से मिलना-जुलना कम ही होता है। मीडिया से वह दूरी बनाए रखते हैं। उनकी उम्र 75 साल की हो चुकी हे और वह स्वस्थ नहीं हैं। उन्हें टर्की सरकासर ने निष्कासित कर दिया था। तुर्की की खुफिया एजेंसियों का दावा हे कि उसे कुछ ऐसे सबूत मिले हैं जिनसे साबित किया जा सकता है कि सेना के कुछ लोग गुलैन के संपर्क में थे गुलेन के उकसावे के बाद उन्होंने तख्तापलट की कार्रवाई को अंजाम दिया। 

फतेहउल्लाह गुलेन 50 साल पहले चर्चा में आए थे। वह इमाम और प्रार्थना सभाओं को नेतृत्व करते थे। तुर्की की सरकार को यह जानकारी मिली कि वह इस्लाम के नाम पर देशों के लोकतंत्र, शिक्षा, सांइस में इस्लाम के कट्टर रूप को घोल रहे हैं। दुनियाभर में उनके एक हजार से अधिक स्कूल संचालित किए जा रहे हैं। आरोप था कि अपने मकसद को पूरा करने के लिए ही गुलेन ने इन स्कूलों को खोला था। सौ से ज्यादा देशों में चलाए जा रहे इन स्कूलों का कारोबार अरबों डॉलर का है। 

शिकायतें मिलने पर जब अमरीका के कुछ स्कूलों में एफबीआई ने छानबीन की तो उसे आर्थिक गड़बड़ियों और वीजा फ्रॉड की जानकारी मिली थी। गुलेन के इन स्कूलों के बारे में चौंकाने वाले दावे भी किए जाते रहे हैं। उन पर आरोप लगाया गया था कि तुर्की से ही इन स्कूल के लिए शिक्षक लाए जाते हैं। जो उनका साथ दे सकें। ऐसे छात्रों की पहचान और राजी करने का काम ये शिक्षक ही करते हैं। 

फतेहउल्लाह गुलेन को तुर्की का दूसरा सबसे ताक़तवर शख्स माना जाता है। उनके तुर्की में लाखों अनुयायी हैं। उन पर तुर्की में रहते हुए देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप लगाए गए थे। बाद में वह अमरीका आकर बस गए। इसे उनका तुर्की से निष्कासन भी माना जाता है। बाद में गुलेन सभी आरोपों से मुक्त हो गए।

तुर्की नै कई बार फतेहउल्लाह गुलेन को अमरीका में शरण दिए जाने पर आपत्ति जताई थी, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। अमरीका में सबसे ऊपर लोकतंत्र को माना जाता है। उसका कहना था कि वह बिना सबूत के तुर्की के संदेहों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इस मामले में अमरीका ने भी आशंका जताई थी कि गुलेन के साथ राजनीतिक साजिश की जा रही थी।

एक समय वह भी था जब फतेहउल्लाह गुलेन तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन के करीबियों में से थे। अब एर्दोआन उन्हें अपना राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मानते हैं। राष्ट्रपति ने गुलेन के हिजमत अभियान को बेअसर करने की कोशिश की थी। उनका कहना था कि गुलेन का यह अभियान को तुकी के भीतर पृथक राष्ट्र बनाने की कोशिश था।

 
पहले भी हो चुकी है तख्तापलट की कार्रवाई
 
तुर्की में इससे पहले भी सेना द्वारा तख्ता पलटने के प्रयास किए जा चुके हैं। सन 1960 में सेना द्वारा सरकार को सत्ता से हटा दिए जाने से देश भर में तनाव फैल गया था। तब राष्ट्रपति सेलाल बेयर, प्रधानमंत्री अदनान मेंदेरेस और उनके अधिकारियों को राजद्रोह का प्रयास करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। बाद में मेंदेरेस को फांसी पर लटका दिया गया। सेना का नेतृत्व करने वाले जनरल केमैल गुरसेल ने राष्ट्रपति की जिम्मेदारी संभाल ली थी।

इसके बाद 1971 में सेना ने फिर सरकार को बेदखल कर दिया। देश में कई महीने तक हिंसा का नंगा नाच हुआ और अशांति रही। सेना के जनरल मेमुध तागमैक ने प्रधानमंत्री सुलेमान देमिरयाल को बाहर करने का अल्टीमेटम दे दिया था। हालांकि इस बार सेना ने सत्ता नहीं संभाली, लेकिन कैबिनेट उसकी निगरानी में काम करती रही। इसके नौ साल बाद तुर्की में राजनीतिक हलचल होने पर सेना ने सितंबर 1980 में देश को पूरे नियंत्रण में ले लिया। एडमिरल बुलेंट उलूसू ने देमिरयाल से प्रधानमंत्री का पद छीन लिया। इस समय देश को स्थायित्व देने का प्रयास किया गया, पर  सेना ने हजारों लोगों को जेल में बंद कर दिया। जहां उन पर अत्याचार किए गए।

समय बदला और 1997 में तुर्की सरकार को सेना ने कुछ सिफारिशें लागू करने के लिए भिजवाईंं। सरकार के पास इन्हें मंजूर करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। तब प्रधानमंत्री नेकमेटटिन अरबैकैन पर इस्तीफा देने के लिए दबाव बनाया गया। यह बड़ी आसान कार्रवाई मानी गई। कारण, सेना ने व्यापार, न्यायपालिका, मीडिया और राजनेताओं के साथ मिलकर काम किया।

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