Edited By vasudha,Updated: 29 Sep, 2018 11:50 AM
उड़ी में आतंकी हमले के बाद भारतीय सेना ने 11 दिन के भीतर एलओसी पार जाकर देश के दुश्मनों को सर्जिकल स्ट्राइक करके सबक सिखाया था। 28 सितंबर की रात देश जब सोया तो 29 की सुबह हमारे वीर सपूतों की जांबाजी की खबर सुनकर झूमते हुए उठा...
नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): उड़ी में आतंकी हमले के बाद भारतीय सेना ने 11 दिन के भीतर एलओसी पार जाकर देश के दुश्मनों को सर्जिकल स्ट्राइक करके सबक सिखाया था। 28 सितंबर की रात देश जब सोया तो 29 की सुबह हमारे वीर सपूतों की जांबाजी की खबर सुनकर झूमते हुए उठा। कैसे इसे 11 दिन के अल्प समय में अंजाम दिया गया, कैसे सेना ने समूची रणनीति को सिरे चढ़ाया, इसे लेकर आज भी छन-छन कर ही कहानियां बाहर आ रही हैं। हालांकि, इस बीच सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देने वाली समूची टीम को सेना ने बिना पहचान जाहिर किए सम्मानित भी किया। हालांकि, यह भी बिडंबना ही कही जाएगी कि देश के सामने सर्जिकल स्ट्राइक के एक हीरो की पहचान तब जाहिर हुई, जब दो रोज पहले वह सीमा पर लड़ता हुआ शहीद हो गया।
जवान संदीप सिंह उसी टीम का हिस्सा था, जिसने एलओसी पार जाकर सर्जिकल स्ट्राइक की शौर्य गाथा लिखी थी। उस ऑपरेशन में किसी भी भारतीय फौजी को खरोंच तक नहीं आई थी। यह हमारी सेना के काम और उसे पूरा करने की लगन और श्रेष्ठता को जाहिर करता है। अब जरा दूसरा पहलू भी जांच लें। एक तरफ जहां सेना ने बिना किसी शोर के इतने बड़े ऑपरेशन को अंजाम दिया तो दूसरी तरफ हमारे सियासतदानों ने इस जांबाजी को तमाशा बना डाला। सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत तक मांगे गए। सबूत डेढ़ साल बाद जाहिर हुए, लेकिन फ़ौज की इस शौर्य गाथा पर सियासत अभी भी जारी है।
कहीं न कहीं ऐसा आभास हो रहा है कि जहां सत्तासीन दल इसे अपने सियासी मुनाफे के लिए भुनाने की कोशिश में है, तो वहीं दूसरे दल इसकी काट करने के चक्कर में इतने बड़े अभियान को हलका साबित करने पर तुले हुए हैं। दोनों ही प्रयास शर्मनाक हैं। क्या फ़ौज किसी एक दल विशेष की होती है ? क्या शहीदों को दलगत राजनीति में बांटा जाना चाहिए? और अगर सर्जिकल स्ट्राइक का श्रेय सेना के बजाए सरकार को जाना चाहिए तो फिर जो शहादतें रोज सीमा पर हो रही हैं, क्या उनकी जिम्मेदारी किसी और की है? क्या हमारे लिए यह शर्मनाक नहीं है कि जो संदीप सिंह इतने बड़े अभियान का सदस्य रहा हम उसे (और उसके साथियों को ) इनाम स्वरूप पीस पोस्टिंग पर नहीं भेज पाए? क्यों उन लोगों को फिर उसी एलओसी पर तैनात रखा गया? क्या सारी विफलताएं अनुशासन नामक एक शब्द में दबकर रह जानी चाहिए ? सवाल अनेकों हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या देश को सर्जिकल स्ट्राइक का सियासीकरण कोई लाभ पहुंचाएगा।
आज जिस तरह से सर्जिकल स्ट्राइक की सालगिरह मनाई जा रही है, क्या अन्य सर्जिकल स्ट्राइक्स की भी मनाई गयी थी ? यहां स्पष्ट कर दें कि हमें सर्जिकल स्ट्राइक की सालगिरह मनाने से नहीं, इसे मनाने के ढंग पर आपत्ति है, जिसमें सियासत स्पष्ट दिख रही है। जबकि इसे एक सैन्य समारोह के तौर पर मनाया जाना ज्यादा बेहतर रहता। एलओसी से पहले म्यांमार में उससे भी बड़े सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया गया था। लेकिन उसे लेकर तो कोई समारोह नहीं होता। तो फिर क्या हम पाकिस्तान से अपनी दुश्मनी का सियासी लाभ इन समारोहों के जरिए उठाना चाहते हैं? यदि हां तो यह सही नहीं है।
यह तर्क दिया जा सकता है कि यह तो सेना का मनोबल बढ़ाने का काम करेगा। लेकिन क्या हथियारों की कमी दूर करके ऐसा नहीं किए जा सकता था? क्या बेहतर खाना सीमा पर उपलब्ध कराकर सेना का मनोबल और बल दोनों नहीं बढ़ाये जा सकते? (बीएसएफ की दाल याद कर लीजिये ) लेकिन सेना पर केस और पत्थरबाजों पर दया करके कौन-सा मनोबल बढ़ाया जा रहा है ? सेना और सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के और भी कई तरीके हैं। लेकिन शायद उनसे वोट नहीं मिलेंगे, इसलिए सियासी समारोह जरूरी हैं। इस मसले पर मंथन वक्त की मांग है बिना अंधभक्ति में बहे।