किसानों का सड़क पर उतरने का इतिहास पुराना, 18वीं सदी से उठा रहे अपने हक के लिए आवाज

Edited By vasudha,Updated: 26 Nov, 2020 04:00 PM

history of farmers protest

भारत की रीड की हड्डी माने जाने वाला अन्नदाता फिर से खेत छोड़ सड़क पर उतर आया है। सदीयों से अपने हक के लिए आवाज उठाने वाले किसान केंद्र की मोदी सरकार के कृषि कानून के खिलाफ इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने आर पार की लड़ाई छेड़ दी।  दिल्ली की तरफ बढ़ रहे...

नेशनल डेस्क: भारत की रीड की हड्डी माने जाने वाला अन्नदाता फिर से खेत छोड़ सड़क पर उतर आया है। मोदी सरकार के कृषि कानून के खिलाफ किसान इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने आर पार की लड़ाई छेड़ दी। सदीयों से अपने हक के लिए आवाज उठाने वाले किसान इस बाद मानने के लिए तैयार नहीं है। दरअसल भारत इस तरह की घटना का पहली बार गवाह नहीं बन रहा है, 18वीं सदी से अब तक किसानों के नाम से कई आंदोलन हुए। आज हम आपसे 18वीं सदी से लेकर 20वीं सदी तक के उन सभी किसान आंदोलन की जानकारी सांझा करने जा रहे हैं, जिसके चलते देश में भारी भूचाल आया।

 

दक्कन का हिंसक विद्रोह
देश के बड़े आंदोलनों में से एक है वर्ष 1874-75 का “दक्कन का हिंसक विद्रोह”। यह आंदोलन तत्कालीन दक्कन क्षेत्र के पुणे और अहमदनगर जिले के गांवों में साहूकारों और जमींदारों के विरुद्ध हुआ था। अंग्रेज सरकारों के सहयोग से साहूकारों ने इस क्षेत्र में अपने पांव जमाना शुरू कर दिया था। ये साहूकार ऊंची ब्याज दर पर स्थानीय किसानों को कर्ज देते थे और तय समय पर कर्ज नहीं चुका पाने की स्थिति में उनकी जमीनों पर कब्जा कर लेते थे। अत्याचार बढ़ता देख किसानों ने सामाजिक बहिष्कार आंदोलन छेड़​ दिया। इस आंदोलन के तहत किसानों ने महाजनों की दुकानों से खरीदारी करने तथा उनके खेतों में मजदूरी करने से इंकार कर दिया। नाइयों ,धोबियों तथा चमकारो ने भी महाजनों की किसी प्रकार की सेवा करने से इंकार कर दिया। हालांकि अंग्रेजी सरकार ने आंदोलनकारियों के प्रति दमनकारी नीतियां अपनाई तथा आंदोलन को कुचल दिया ।

 

बिजोलिया किसान आंदोलन 
सन् 1847 में बिजोलिया किसान आंदोलन मशहूर क्रांतिकारी विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में चला था। जो अंग्रेजों के साथ साथ भारत के ज़मींदारों की दादागिरी के खिलाफ था। राजस्थान की ज़मीन से उठे इस आंदोलन का प्रभाव इतना ज़बरदस्त था कि पूरे भारत किसानों ने ज़मींदारों के खिलाफ जंग छेड़ दी थी। यह आंदोलन करीब 50 साल तक यानी भारत को आज़ादी मिलने तक चला। लेकिन दुर्भाग्य यह था कि विजय सिंह पथिक को लोगों ने आज़ादी मिलते ही भुला दिया। 

 

चंपारण आंदोलन
आज से करीब 100 साल पहले अंग्रेजो की गुलामी को उतार फेंकने के लिए चंपारण आंदोलन की शुरूआत हुई थी। इस आंदोलन के जरिये महात्मा गांधी ने लोगों के विरोध को सत्याग्रह के माध्यम से लागू करने का पहला प्रयास किया था। इस आंदोलन का मुख्य केंद्र चंपारण के किसानों की दुर्दशा को दूर करने का था। अंग्रेजों ने चंपारण के पट्टेदार किसानों को जबरन बड़े पैमाने पर नील की खेती करने का फरमान सुनाया था। यह आंदोलन न केवल ब्रिटिश हुकूमत द्वारा नील की खेती के फरमान को रद्द करने में सफल साबित हुआ बल्कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह वाले असरदार तरीके के साथ भारत के पहले ऐतिहासिक नागरिक अवज्ञा आंदोलन के तौर पर भी सफल साबित हुआ। चंपारन आंदोलन मे गांधी जी के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा के नाम से संबोधित किया। तभी से लोग उन्हें महात्मा गांधी कहने लगे।

 

बारदोली सत्याग्रह 
12 फरवरी 1928 को महात्मा गांधी ने गुजरात के बारदोली में सत्याग्रह की घोषणा की थी, जिसे “बारदोली सत्याग्रह” के नाम से जाना जाता है। सन् 1928 में जब साइमन कमिशन भारत में आया, तब उसका राष्ट्रव्यापी बहिष्कार किया गया था। इस बहिष्कार के कारण भारत के लोगों में आजादी के प्रति अदम्य उत्साह था, जब कमिशन भारत में ही था, तब बारदोली का सत्याग्रह भी प्रारंभ हो गया था। इसका प्रमुख कारण ये था कि, वहां के किसान जो वार्षिक लगान दे रहे थे, उसमें अचानक 30% की वृद्धी कर दी गई। किसानों की एक विशाल सभा बारदोली में आयोजित की गई, जिसमें सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया गया कि बढा हुआ लगान किसी भी कीमत पर नही दिया जायेगा।वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में इस आन्दोलन का असर सरकार पर हुआ और मुम्बई सरकार ने लगान के आदेश को रद्द करने की घोषणा करते हुए, सभी किसानो की भूमि तथा जानवरों को लौटाने का सरकारी फरमान जारी किया। 

 

भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसान आंदोलन 
जनवरी 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव के लिए अध्यादेश लेकर आई थी, जिसके खिलाफ देश भर के किसान सड़क पर उतर आए थे। विपक्ष के साथ साथ भाजपा के कई सहयोगी दल भी इस मुद्दे पर प्रमुखता से  विरोध में उतर आए हैं। किसान संगठनों से लेकर अन्ना हजारे तक धरने पर बैठ गए थे। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसान विरोधी बताया था, क्योंकि 2013 के कानून के बाद भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया बेहद जटिल हो गई थी, लेकिन किसानों के हित में थी। लेकिन किसानों का आंदोलन इतना ज्यादा बढ़ गया था कि सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा। 

 

तमिलनाडु किसान आंदोलन 
साल 2017 में तमिलनाडु के किसानो के अजीबोगरीब प्रदर्शन ने दिल्ली समेत पूरे देश को हिला कर रखा दिया था। फ़सलों के उचित मूल्य की मांग को लेकर 40 दिन चले इस आंदोलन में किसानों ने विरोध प्रदर्शन के कई अलग-अलग तरीकों को आज़माया था। सबसे पहले किसानों ने नर खोपड़ियों के साथ प्रदर्शन किया था। उनका कहना था कि यह खोपड़ी किसानों की थी जो फसलों के खराब होने और बढ़ते कर्ज के चलते आत्महत्या कर अपनी जान दे चुके ।फिर इन किसानों नेअर्द्ध-नग्न या कभी किसानों ने सिर के आधे बाल और आधी मूंछ कटाकर भी प्रदर्शन किया था। 40 दिन धरना देने के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलानीस्वामी ने किसानों को आश्वासन दिया था कि वे किसानों की समस्याएं दूर करेंगे। इसके बाद किसानों ने धरना स्थगित कर दिया था।

 

कृषि बिल का विरोध 
नए कृषि बिल के विरोध में देश के कुछ हिस्सों में किसान सड़क पर उतर आए हैं। पंजाब में रेल रोको आंदोलन के बाद किसानों ने दिल्ली को घेरने का मन बना लिया है। जहां एक तरफ मोदी सरकार इन बिलों को किसानों के लिए वरदान बता रही है तो वहीं दूसरी तरफ किसान इसे ​​अभिशाप मान रहे हैं। आरोप है कि नए क़ानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूँजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुक़सान किसानों को होगा। 
 

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