दुनिया की सबसे बड़ी डील से कब तक भारत रह पाएगा बाहर?

Edited By vasudha,Updated: 08 Nov, 2019 10:54 AM

how long will india be able to stay out of the world biggest deal

भारत ने आसियान देशों के प्रस्तावित क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक समझौते (आर.सी.ई.पी.) में शामिल नहीं होने का फैसला किया है। सरकार का कहना है कि आर.सी.ई.पी. में शामिल होने को लेकर उसकी कुछ मुद्दों पर चिंताएं थी...

नई दिल्ली (विशेष): भारत ने आसियान देशों के प्रस्तावित क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक समझौते (आर.सी.ई.पी.) में शामिल नहीं होने का फैसला किया है। सरकार का कहना है कि आर.सी.ई.पी. में शामिल होने को लेकर उसकी कुछ मुद्दों पर चिंताएं थीं जिन्हें लेकर स्पष्टता न होने के कारण देशहित में यह कदम उठाया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे ‘गांधी जी के मूलमंत्र और अपनी आत्मा की आवाज’ पर लिया निर्णय बताया है। भारत द्वारा आर.सी.ई.पी. पर हस्ताक्षर न करने को लेकर व्यापारियों, कारोबारियों और अधिकारियों ने इसकी सराहना की है। गरीबों के हित के लिए प्रधानमंत्री द्वारा यह फैसला किए जाने की सराहना की जा रही है। नेताओं द्वारा मोदी के इस कदम को अच्छा फैसला बताया जा रहा है। आर.सी.ई.पी. से अलग रहने के विचार को लेकर हर कोई दलील दे रहा है।  

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माना जा रहा था कि भारत इस व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर कर देगा और इसी बात को लेकर कई किसान और कारोबारी संगठन विरोध कर रहे थे। आर.सी.ई.पी. में शामिल न होने का फैसला अपने स्वभाव में राजनीतिक है। शामिल होने पर विपक्ष प्रधानमंत्री के खिलाफ लामबंद हो जाता। राजनीतिक और बिजनैस के माहिरों का कहना है कि हालांकि प्रधानमंत्री ने आर.सी.ई.पी. समझौते में शामिल नहीं होने का फैसला किया है लेकिन सवाल यह है कि भारत इस डील से कब तक बाहर रह पाएगा। माहिरों का विचार है कि कुछ परिवर्तन के बाद भारत इस समझौते में शामिल हो सकता है। फिलहाल चीन के रुख और समय का इंतजार करना होगा। 

 

इस तरह समझें आर.सी.ई.पी. को
आर.सी.ई.पी. (रीजनल कम्प्रिहैन्सिव इकनॉमिक पार्टनरशिप) की कोशिश दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार ब्लॉक स्थापित करने की है जिसमें 16 देश होंगे। विश्व की करीब 45 प्रतिशत आबादी के साथ निर्यात का एक-चौथाई इन्हीं देशों से होता है। भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया और आसियान देशों के अलावा ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड 2012 से इस पर बातचीत कर रहे हैं। चर्चा के मुख्य बिंदुओं में 90 प्रतिशत सामानों पर आयात शुल्क घटाया जाना या खत्म करना है। चीन के मामले में भारत 80 प्रतिशत सामान पर आयात शुल्क शून्य करने के पक्ष में था। इसके अलावा सर्विस, ट्रेड, निवेश बढ़ाना और वीजा नियमों को आसान बनाने पर विचार किया जा रहा था।

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आसान नहीं लाभ-हानि का आकलन कर पाना 
आर.सी.ई.पी. से बाहर रहने का फैसला लेना कठिन था। पक्ष और विपक्ष दोनों के ही दमदार तर्क थे। बड़े पैमाने के निवेश तथा व्यापार की संभावना वाले इस समझौते से अपने को दूर रखना कोई मजाक नहीं था। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के सामान्य आर्थिक तर्क को समझने के लिए ‘अपेक्षिक बढ़त’ के सिद्धांतों को जानने की जरूरत नहीं। विभिन्न देशों के बीच आपसी व्यापार में सीमा शुल्क कम हो या एकदम ही न चुकाना पड़ रहा हो तो बाहर से आपके देश में सस्ते सेवा सामान की आवक होती है और आपके देश के सेवा तथा सामानों को विश्व के दूसरे देशों में बड़ा बाजार हासिल हो सकता है। जाहिर है सीमा शुल्क को कम करने या फिर उसे खत्म करने के किसी समझौते से हटने का मतलब है सस्ते सेवा सामान की आवक तथा अपने लिए बड़े बाजार की संभावनाओं से मुंह मोडऩा। आर.सी.ई.पी. से बाहर रहने के फैसले की जाहिर है गंभीर और दमदार आलोचना होगी। 

 

आर.सी.ई.पी. पर फैसला लेना बड़ा जटिल काम था लाभ-हानि का आकलन कर पाना आसान नहीं था। कुछ लाभ तो बड़े स्पष्ट दिख रहे थे। सूचना प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य तथा शिक्षा क्षेत्र के पेशेवर नजर गड़ाए बैठे थे कि उनके लिए संभावनाओं के नए द्वार अब बस खुलने ही वाले हैं। दवा बनाने के उद्योग से जुड़े लोगों को लग रहा था कि उन्हें बड़ा बाजार हासिल होने जा रहा है। उद्योग को सस्ता इस्पात चाहिए और फिर उपभोक्ताओं को भी फायदा होना ही था। उन्हें चीन के अतिरिक्त बाकी मुल्कों से भी आने वाली चीजें सस्ते दामों पर हासिल होतीं।

 

घरेलू उद्योगों के हित से जुड़ी  चिंताओं का समाधान नहीं
अगर आर.सी.ई.पी. समझौते के हिसाब से बात करें तो भारत की प्रमुख चिंताओं में शामिल है -आयात वृद्धि के खिलाफ अपर्याप्त सुरक्षा, चीन के साथ अपर्याप्त अंतर, साल 2014 के रूप में आधार वर्ष को ध्यान में रखते हुए और बाजार पहुंच व गैर टैरिफ बाधाओं पर कोई विश्वसनीय आश्वासन नहीं दिया गया। पिछले करीब 7 साल से जारी बातचीत के बाद घरेलू उद्योगों के हित से जुड़ी मूल ङ्क्षचताओं का समाधान नहीं होने पर आखिरकार भारत ने चीन के समर्थन वाले क्षेत्रीय व्यापक आॢथक भागीदारी (आर.सी.ई.पी.) समझौते से बाहर रहने का फैसला किया है।

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किसानों का मानना-आर.सी.ई.पी. विश्व व्यापार संगठन से ज्यादा खतरनाक 
भारतीय किसान यूनियन के वरिष्ठ नेताओं ने बताया कि यदि इस समझौते को पूरी तरह लागू किया जाता तो देश को 60 हजार करोड़ के राजस्व का नुक्सान होता। 92 प्रतिशत व्यापारिक वस्तुओं पर शुल्क हटाने के लिए भारत को बाध्य किया जाता। आसियान ब्लॉक देशों के साथ सस्ते आयात को मंजूरी देकर भारत को 2018-19 में 26 हजार करोड़ रुपए का नुक्सान हुआ है। किसान संगठनों के मुताबिक आर.सी.ई.पी. व्यापार समझौता विश्व व्यापार संगठन से ज्यादा खतरनाक है। भारत का अधिकांश असंगठित डेयरी सैक्टर वर्तमान में 15 करोड़ लोगों को आजीविका प्रदान करता है। आर.सी.ई.पी. समझौता लागू होने के बाद न्यूजीलैंड आसानी से भारत में डेयरी उत्पाद सप्लाई करने लगेगा। संगठनों के मुताबिक न्यूजीलैंड आधा सच ही बता रहा है कि उसके केवल 5 प्रतिशत डेयरी उत्पाद ही भारत को निर्यात के लिए रखे जाएंगे लेकिन ये 5 प्रतिशत उत्पाद ही हमारे पूरे बाजार के एक तिहाई के बराबर हैं। किसान संगठन आर.सी.ई.पी. को सबसे बड़ा विदेशी व्यापार समझौता मानता है जोकि दुनिया की 49 प्रतिशत आबादी तक पहुंचेगा और विश्व व्यापार का 40 प्रतिशत इसमें शामिल होगा जो दुनिया की एक तिहाई जी.डी.पी. के समान होगा।

 

कृषि क्षेत्र
आर.सी.ई.पी. से आयात के चलते दूसरे देशों के लिए दरवाजे पूरी तरह खुल जाते हैं तो कृषि क्षेत्र के लिए संकट बढ़ जाएगा। दुनिया की सबसे बड़ी भारतीय डेयरी अर्थव्यवस्था से 1.5 करोड़ किसान जुड़े हैं। लगभग 7 लाख करोड़ रुपए का भारत का डेयरी क्षेत्र कुल कृषि आय (28 लाख करोड़) में 25 फीसदी योगदान करता है।

 

बढ़ जाएगा ड्रैगन से खतरा
माना जा रहा है कि इस समझौते के बाद भारत के लिए चीन और भी बड़े खतरे के तौर पर सामने आएगा। दरअसल, चीन के सस्ते सामान के आगे भारतीय बाजार कहीं नहीं टिकता। भारत के लगातार प्रयासों के बावजूद चीन की तुलना में व्यापार घाटा लगभग 53 अरब डॉलर हो चुका है जिसमें 2014 से अब तक लगभग 50 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है। वार्ताकार चाहते हैं कि भारत क्षेत्र में बिकने वाले 90 फीसदी उत्पादों पर टैरिफ खत्म कर दे। वहीं भारत की चिंता है कि उसके यहां बिकने वाले सामान में 40 फीसदी हिस्सेदारी चीनी कंपनियों की है। भारतीय निर्यातकों की चीन में पहुंच मुश्किल बनी हुई है क्योंकि चीन के व्यापार नियामकों से मंजूरी लेना ही मुश्किल होता है।

 

समझौते से भारत का क्या फायदा?
आर.सी.ई.पी. में शामिल क्षेत्रों में काम कर रही भारत की कंपनियों को एक बड़ा बाजार मिलने की संभावना है। इस समझौते के होने के बाद घरेलू बाजार में मौजूद बड़ी कंपनियों और सेवा प्रदाताओं को भी निर्यात के लिए एक बड़ा बाजार मिल सकेगा। साथ ही भारत में इन देशों से आने वाले उत्पादों पर टैक्स कम होगा और ग्राहकों को कम कीमत पर ये सामान उपलब्ध हो सकेंगे।

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उद्योग क्षेत्र
भारतीय उद्योग जगत ने आर.सी.ई.पी. समूह में चीन की मौजूदगी को लेकर चिंता जताई है। डेयरी, धातु, इलैक्ट्रॉनिक्स और रसायन समेत विभिन्न क्षेत्रों ने सरकार से इन क्षेत्रों में शुल्क कटौती नहीं करने का आग्रह किया है। उद्योग जगत को आशंका है कि आयात शुल्क कम या खत्म होने से विदेशों से अधिक मात्रा में माल भारत आएगा और स्थानीय उद्योगों पर इसका बुरा असर होगा।

 

अनदेखी आसान नहीं
आर.सी.ई.पी. के सदस्य देशों की जनसंख्या लगभग 3.40 अरब है। इन 16 देशों का कुल जी.डी.पी. 49.5 लाख करोड़ डॉलर है जिसका दुनिया के कुल जी.डी.पी. में 39 फीसदी योगदान है और इसमें भारत व चीन की आधी से ज्यादा हिस्सेदारी है। यही वजह है कि आर.सी.ई.पी. की अनदेखी करना किसी भी देश के लिए आसान नहीं है। 

 

पहले भी ऐसा होता आया है  
आर.एस.एस. से जुड़े स्वदेशी जागरण मंच सहित कई संगठन डेयरी और कृषि क्षेत्र को इस समझौते से बाहर रखने की मांग कर रहे हैं। भारत पूर्व में हुए कई एफ.टी.ए. से भी इन संवेदनशील क्षेत्रों को बाहर रखता आ रहा है। हालांकि आर.सी.ई.पी.के सदस्य देशों ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की नजर भारतीय बाजार पर है। पूर्व में यूरोपीय यूनियन, कनाडा, अमरीका के साथ एफ.टी.ए. वार्ता नाकाम होने की वजह भी यही थी क्योंकि वे डेयरी और कृषि क्षेत्र को इसमें शामिल करना चाहते थे।

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