पीएम पद ठुकराने वाले जेपी नारायण की आज है जयंती, इंदिरा के लिए बने थे सिर दर्द

Edited By Ravi Pratap Singh,Updated: 11 Oct, 2019 12:36 PM

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भारतीय राजनीति में जननायक के तौर पर उभरे जय प्रकाश नारायण की आज 117वीं जयंती है। आज भी वह भारतीय नेताओं के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत हैं। प्रधानमंत्री पद ठुकराने वाले जेपी आपातकाल में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी का सिर दर्द बन गए थे। इमरजेंसी को सामाप्त...

नेशनल डेस्कः भारतीय राजनीति में जननायक के तौर पर उभरे जय प्रकाश नारायण की आज 117वीं जयंती है। आज भी वह भारतीय नेताओं के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत हैं। प्रधानमंत्री पद ठुकराने वाले जेपी आपातकाल में तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी का सिर दर्द बन गए थे। इमरजेंसी को सामाप्त करने का श्रेय जेपी नारायण को जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने हमें दूसरी आजादी दिलाई थी। 

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उच्च शिक्षा के लिए गए अमेरिका
11 अक्टूबर, 1902 को बिहार के छपरा में जन्में जेपी उंच शिक्षा हासिल करने के लिए 1922 में अमेरिका गए थे जहां उन्होंने  कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय-बरकली, विसकांसन विश्वविद्यालय में 1929 तक समाज-शास्त्र का अध्ययन किया। 8 अक्टूबर, 1979 को उनका देहांत हो गया था।

ठुकरा दिया था प्रधानमंत्री पद
जेपी ने स्वतंत्रता आन्दोलन में भी अहम भूमिका निभाई थी। इसके लिए उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। गांधी से प्रेरित जेपी समाजवाद के सबसे बड़े नेता रहे। गांधी ने भी माना कि जेपी देश के सबसे बड़े समाजवादी विचारक हैं। वर्ष 1952 के चुनाव में उनकी सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस से हार चुकी थी। नेहरु ने जेपी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। आज के दौर में पद प्रतिष्ठा के लिए नेताओं में छटपटाहट आसानी से देखी जा सकती है। लेकिन उस दौर में जेपी ने खुद को इस रेस से बाहर कर लिया था। उन्होंने मंत्रीमंडल में शामिल होने के नेहरू द्वारा दिए गए कई निमंत्रण को विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था।

वर्ष 1964 में उनके सामने देश के दूसरे प्रधानमंत्री बनने का भी प्रस्ताव आया। वरिष्ठ पत्रकार अजित भट्टाचार्जी उनकी जीवनी में लिखते है कि नेहरु ने अपने अंतिम दिनों में लाल बहादुर शास्त्री के माध्यम से यह प्रस्ताव भिजवाया था, जिसे जेपी ने अस्वीकार कर दिया था। 

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दोबारा राजनीति में हुए सक्रिय
15 अप्रैल, 1973 को उनकी पत्नी प्रभावती की मृत्यु हो गई थी। इससे उनको गहरा सदमा पहुंचा। इसके बाद वर्ष 1974 में जेपी ने 72 वर्ष की आयु में सक्रिय राजनीति में दोबारा वापसी की। यह वह दौर था जब छात्र भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, मुद्रास्फीति के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। देखते ही देखते यह आंदोलन सरकार के विरुद्ध आग की तरह फ़ैल चुका था। बिहार और गुजरात की सरकार छात्रों द्वारा किये जा रहे आंदोलन को कुचलना चाहा। तब सत्ता के दमन नीतियों के विरुद्ध जेपी नारायण ने उनका नेतृत्व करने का फैसला किया। उनके द्वारा संभाले गए इस आंदोलन ने क्रांतिकारी रूप धारण किया, जो ‘जेपी आंदोलन’ के नाम से इतिहास के पन्नों में दर्ज हुआ। इस आंदोलन ने भ्रष्ट और सत्ताधारी सरकारों की नींव हिलाकर रख दी थी। 8 अप्रैल, 1974 को जेपी ने पटना में मौन जुलूस का नेतृत्व किया। जुलूस पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया, लेकिन इसने भ्रष्टाचार व निरंकुश शासन के खिलाफ बड़े पैमाने पर चिंगारी लगाने का काम किया। 5 जून को जेपी के नेतृत्व में एक विशाल रैली पटना में आयोजित हुई। उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि “यह एक क्रांति है दोस्तों! हम यहां केवल विधानसभा भंग होते देखने के लिए नहीं आये हैं। हमारी यात्रा लम्बी है। आज़ादी के 27 साल बाद इस देश के लोग भूख से मर रहे हैं, महंगाई व भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारा आंदोलन चलता रहेगा।”  यह बिहार आंदोलन बाद में ‘सम्पूर्ण आंदोलन’ बन गया। जून 1975 में गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को हार मिली। जनता पार्टी सत्ता पर काबिज हो चुकी थी।

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इंदिरा सरकार के खिलाफ खोला मोर्चा 
12 जून, 1975 इलाहबाद उच्च न्यायालय ने चुनाव में धांधली के आरोप में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दोषी ठहराया, तो जेपी ने उन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मामले की जाँच चलने तक इस्तीफे की मांग कर डाली। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश को बरकरार रखा, लेकिन इंदिरा को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दे दी। अगले दिन जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा को पद से इस्तीफा देने के लिए प्रदर्शन व हड़तालें करना शुरू किया। इसमें मोरारजी समेत कई दिग्गज व विपक्षी नेताओं का समर्थन मिला। इससे इंदिरा हतप्रभ हो चुकी थी जिसका नतीजा ये हुआ 25 जून की रात इंदिरा ने देश में आपातकाल लागू करने का निर्णय लिया। 26 जून को भारतवासियों को इंदिरा ने खुद रेडियो के माध्यम से आपातकाल की घोषणा की। इस दौरान जेपी नारायण समेत कई विपक्षी नेताओं को जेल की हवा खानी पड़ी। उनके साथ कई युवा राजनेताओं को भी हिरासत में लिया गया था जो बाद में भारतीय राजनीति में खुद को साबित किया और एक बड़ा चेहरा बनकर उभरे थे। 

बहरहाल, आपातकाल में अभिव्यक्ति की आज़ादी को छीन लिया गया था। इंदिरा सरकार की नीतियां तानाशाही का परिचय दे रही थीं। इस दौरान जेपी समेत कई नेताओं को सरकार के जुल्म का शिकार होना पड़ा। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और आखिरकार 21 मार्च 1977 को 21 महीने के बाद आपातकाल को समाप्त कर दिया गया था। उस दौरान देश कई गंभीर समस्याओं से जूझ रहा था। जनता कांग्रेस से नाराज़ थी। 

जेपी की आंधी में ढह गईं इंदिरा गांधी
उससे पहले देश की सत्ता पर काबिज होने के लिए चुनावी प्रचार प्रसार प्रारंभ हो चुका था। इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव अभियान की शुरुआत 5 फरवरी, 1977 को दिल्ली के रामलीला मैदान से की। आयोजकों को भीड़ इकठ्ठा करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। इंदिरा गांधी नाराज़ थीं उन्होंने अपने भाषण में जनता पार्टी को खिचड़ी कहकर उसका मजाक उड़ाया। उनके भाषण के दौरान ही भीड़ बीच सभा से जाने लगी थी। कार्यकर्ता उनसे बैठने का निवेदन कर रहे थे। इसके कारण इंदिरा को अपना भाषण बीच में ही रोकना पड़ गया था। संजय गांधी को भी स्पीच देनी थी। उन्होंने न बोलने का फैसला लिया।

उसके अगले दिन जेपी नारायण भी दिल्ली पहुँच गए थे। वे भी रामलीला मैदान में चुनावी रैली करने का निर्णय लिया। कहा जाता है कि जिस दिन रैली होनी थी, उस दिन सूचना-प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने भीड़ को घर पर रोकने की कोशिश की। उन्होंने दूरदर्शन पर चार बजे प्रसारित होने वाली पुरानी फिल्मों के समय में कुछ बदलाव किया। उस दिन दूरदर्शन पर समय बदलते हुए पांच बजे तीन साल पुरानी ब्लॉकबस्टर 'बॉबी' दिखाने का फ़ैसला किया गया।  

बसों को रामलीला मैदान से काफी दूर खड़ा करने की अनुमति दी गई थी। लेकिन इंदिरा सरकार के लाख बाधाओं के बावजूद हजारों की तादाद में लोग रामलीला मैदान पहुंचे थे। पूरा मैदान भरा हुआ था। 

इंदिरा के लिए एक और बुरी खबर आई उनकी बुआ विजय लक्ष्मी पंडित ने भी जेपी को समर्थन दे दिया। जार्ज फर्नांडिस को जेल से रिहा कराने के लिए जेएनयू छात्रों ने कोर्ट के बाहर ‘जेल का फाटक तोड़ दो, जॉर्ज फर्नान्डिस को छोड़ दो।' का नारा दिया जो युवा वोटरों को रिझाने में कामयाब रहा। यही वजह रही कि  अपने संसदीय क्षेत्र में प्रवेश किये बिना ही फर्नांडिस ने बड़े अंतर (लगभग 3 लाख वोट) से जीत हासिल की थी। 

इंदिरा चुनाव जीतने के लिए लगभग 40 हज़ार किलोमीटर घूमीं, 244 चुनावी सभाएं की। भारत के सिक्किम व जम्मू-कश्मीर को छोड़ हर राज्यों में दौरा किया। लेकिन वह जान चुकी थीं कि इस बार जनता ने उनको नकार दिया है। खैर, चुनाव में वोटरों की लम्बी लाइनों को देख दोनों पार्टियों ने अपने ही हित में सकारात्मक संदेश दिए।

चुनाव के बाद जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मतपत्रों की दिन रात रखवाली की। ताकि उनके साथ किसी भी तरह से छेड़छाड़ न की जा सके। परिणाम के दिन जनता पार्टी के गठबंधन को 298 सीटें मिली वहीं कांग्रेस को 153 सीटों से संतोष करना पड़ा। इंदिरा अपना चुनाव 55 हज़ार वोटों से व संजय 75 हज़ार वोटों से हार चुके थे। परिणाम घोषित होने के अगले दिन मंत्रीमंडल की बैठक हुई, जिसमें आपातकाल को हटा लिया गया था। इस तरह जेपी नारायण के नेतृत्व में जनता की आंधी इंदिरा गांधी पर भारी पड़ी। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक नई सुबह लेकर आया था। 8 अक्टूबर, 1979 को जेपी के निधन के बाद उनके राजनीतिक जीवन के अध्याय को अँधेरे में रखा गया।

 

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