भारत के 80 फीसदी परिवार नहीं उठा सकते निजी मेडिकल कॉलेजों की पढ़ाई का खर्च

Edited By Anil dev,Updated: 08 Mar, 2022 11:36 AM

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यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद भारत में मेडिकल शिक्षा प्रणाली को लेकर सवाल उठने लगे हैं। खास कर निजी मेडिकल कॉलेजों को लेकर बहस छिड़ी हुई है

नेशनल डेस्क: यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद भारत में मेडिकल शिक्षा प्रणाली को लेकर सवाल उठने लगे हैं। खास कर निजी मेडिकल कॉलेजों को लेकर बहस छिड़ी हुई है, देश के निजी मेडकल कॉलेजों के द्वारा छात्रों से एमबीबीएस के कोर्स के लिए 80 लाख से एक करोड़ रुपए तक वसूल लिए जाते हैं, जिसकी वजह से बच्चे मेडिकल पढ़ाई के लिए रूस, यूक्रेन, बांग्लादेश, नेपाल, स्पेन, जर्मनी जैसे देशों की ओर रुख करते हैं। जहां महज 20 से 25 लाख रुपए तक में ही मेडिकल की पढ़ाई की जा सकती है। यूक्रेन में पढ़ाई करने गए छात्रों के युद्ध में फंसने के बाद अब इसी बहस के बीच देश में एमबीबीए को लेकर कई खुलासे हो रहे हैं। मेडिकल शिक्षा पर चढ़ी परतें अब एक -एक करके खुलने लगी हैं। एक मीडिया रिपार्ट में कहा गया है कि सरकारी कॉलेज में सीमित सीटों के कारण करीब देश के 80 फीसदी से अधिक परिवार ऐसे हैं जो अपने बच्चों की मेडिकल पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते हैं।

एनआरआई सीटों से 5 हजार करोड़ फीस
रिपोर्ट के अनुसार देश में एमबीबीएस की कुल 90800 सीटों में सिर्फ आधी सीटों का लोग खर्च उठा सकते हैं। इसकी वजह है कि ये सीटों सरकारी मेडिकल कॉलेज में हैं। यदि निजी एमबीबीएस कॉलेजों में सरकारी कोटे की बात करें तो इनमें 200 ही ऐसी सीटें हैं ऐसी है जिसका खर्च लोग उठा सकते हैं, जबकि दूसरी ओर कॉलेज प्रबंधन एनआरआई सीटों से सालाना लगभग 5,000 करोड़ रुपये जुटाते हैं।  रिपोर्ट में  देश के 605 मेडिकल कॉलेजों में 568 कॉलेज में उपलब्ध कुल 90 हजार 800 सीटों में से 86340 सीटों की ट्यूशन फीस का विश्लेषण किया गया है। इस विश्लेषण में सामने आया कि देश के ग्रामीण इलाके जहां डॉक्टरों की बहुत अधिक कमी हैं, वहां सिर्फ एमबीबीएस की सिर्फ 40 फीसदी सीटें हैं। इनमें से अधिकतर सरकारी कॉलेजों में हैं।

कुल खर्च का आधा मेडिकल पढ़ाई पर
राष्ट्रीय सांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार हम प्रति व्यक्ति सालाना खर्च को देखते हैं। देश में करीब 90 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इसमें देश की 80 फीसदी आबादी के सालाना खर्च और एमबीबीएस की सालाना फीस की तुलना की गई। इसमें परिवार के सालाना खर्च के आधी रकम को अफोर्डेबल फीस माना गया। हालांकि, यह कहना थोड़ा वास्तविकता से हटकर होगा की एक परिवार अपने कुल खर्च का आधा हिस्सा बच्चे की मेडिकल पढ़ाई पर लगा सकता है। हालांकि, ट्यूशन फीस के अलावा हॉस्टल चार्ज, मेस खर्च, एग्जाम फीस, यूनिवर्सिटी डेवलपमेंट फीस भी शामिल हैं। यह एक लाख से 3 लाख तक सालाना अधिक हो सकता है।

महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में सस्ती व्यवस्था
महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में, निजी कॉलेजों में आरक्षित श्रेणी के छात्रों के लिए या आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए निजी कॉलेजों में फीस का भुगतान आंशिक रूप से या पूरी तरह से सरकार द्वारा किया जाता है, जिससे इन सीटों का एक निश्चित अनुपात कुछ वर्गों के लिए सस्ता हो जाता है। इन उपायों के बिना निजी मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस सीटें अनिवार्य रूप से भारत की 20 फीसदी से कम आबादी के लिए आरक्षित हैं। और निजी डीम्ड यूनिवर्सिटी सिटी मेडिकल कॉलेजों में सीटें, जो लगभग 8,500 सीटों या कुल सीटों का लगभग 10 फीसदी है।

सबसे महंगे हैं गुजरात के सरकारी मेडिकल कॉलेज
गुजरात सरकारी कॉलेजों में सबसे महंगी एमबीबीएस सीटों वाला राज्य है। यहां अहमदाबाद और सूरत में ज्यादातर सरकारी-समाज संचालित कॉलेज नगर निगमों द्वारा चलाए जा रहे हैं। निजी कॉलेजों की तरह इनमें भी मैनेजमेंट और एनआरआई की सीटें हैं। इन कॉलेजों में सरकारी सीटों की सालाना फीस 3 लाख रुपये से लेकर 7.6 लाख रुपये तक है। गुजरात में 80 फीसदी से अधिक शहरी परिवारों का वार्षिक खर्च 3 लाख रुपये से कम है। पंजाब, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में सालाना फीस क्रमश: 1.8 लाख रुपये, 1.4 लाख रुपये और 1.1 लाख रुपये है। एम्स और उसके बाद बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे केंद्र सरकार के संस्थानों में फीस सबसे कम है। अधिकांश सरकारी कॉलेजों में वार्षिक शुल्क 6,500 रुपये से 9,000 रुपये तक है।

पीपीपी मोड से और भी महंगी शिक्षा
जब सरकार मेडिकल सीटों की उपलब्धता बढ़ाने के लिए  पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी मोड) में चलने के लिए जिला अस्पतालों को निजी संस्थाओं को सौंपने की बात 

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