कारगिल युद्ध के 20 साल: क्या हमें सब सबक याद हैं?

Edited By ,Updated: 24 Jul, 2019 04:29 PM

kargil vijay diwas

ऑपरेशन विजय या कारगिल युद्ध, को समाप्त हुए 20 साल पूरे हो गए हैं। एक तरफ ये ऑपरेशन पूर्ण पैमाने के युद्ध की परिभाषा में ठीक नहीं बैठता, जहां पूरी राष्ट्रीय इच्छाशक्ति और सैन्य शक्ति एक विरोधी के खिलाफ कार्रवाई में झोंक दी जाती है।

नेशनल डेस्कः ऑपरेशन विजय या कारगिल युद्ध, को समाप्त हुए 20 साल पूरे हो गए हैं। एक तरफ ये ऑपरेशन पूर्ण पैमाने के युद्ध की परिभाषा में ठीक नहीं बैठता, जहां पूरी राष्ट्रीय इच्छाशक्ति और सैन्य शक्ति एक विरोधी के खिलाफ कार्रवाई में झोंक दी जाती है। दूसरी ओर कारगिल संघर्ष, बल के संदर्भ में जम्मू कश्मीर और उत्तर पूर्व में चल रहे ‘लो इंटेंसिटी कॉनफ्लिक्ट’(एलआईसी)' से हर मायने में विस्तृत था। दोनों तरफ के स्तर, तीव्रता और हताहतों की संख्या के हिसाब से मापा जाए तो कारगिल युद्ध भारत पाक संबंधों के इतिहास में एक बड़ा मोड़ साबित होता है। घुसपैठियों को सफलतापूर्वक खदेड़ कर पाकिस्तान पर सैन्य और नैतिक जीत हासिल करने के साथ ही इस संघर्ष ने हमें कई कड़वे और कठोर सबक भी दिए।

मार्च 1999 में हमारे गश्ती दल ने सीमा के काफी अंदर तक पाकिस्तानी घुसपैठियों के होने की जानकारी दी। इतने बड़े पैमाने और इलाके में घुसपैठ वाकई सूचना और खुफिया तंत्र की बड़ी विफलता थी। भारत पाक सीमा पर ऊंचे इलाकों में बहुत ज्यादा बर्फ गिरने के बाद कुछ अग्रिम चौकियों को सर्दी में खाली कर दिया जाता है। पाकिस्तानी सेना ने इस बात का फायदा उठा कर 1999 में अपने सैनिकों को भारतीय सीमा में घुसपैठ के लिए भेजा और राष्ट्रीय राजमार्ग 1A पर इन घुसपैठियों ने अपनी मौजूदगी से दबाव बना लिया। यदि समय पर कार्यवाही नहीं होती तो कारगिल और उसके आगे वाले इलाकों का संपर्क देश से टूट जाता और सेनाओं को भारी नुकसान उठाना पड़ता।

हमारे सैनिकों के अद्वितीय साहस और बलिदान से कारगिल युद्ध में हमने विजय पायी और इसी कारण इसे ‘ऑपरेशन विजय’ का नाम दिया गया। हमारे युवा अधिकारियों और जवानों द्वारा प्रदर्शित अदम्य साहस और सर्वोच्च बलिदान की कहानियां हमारे दिमाग में हमेशा के लिए अंकित हैं। 26 जुलाई 1999 को युद्ध के अंत की औपचारिक घोषणा की गई और इस दिन को कारगिल विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। ज्ञात रहे कि 16 दिसंबर वास्तविक विजय दिवस, 1971 के युद्ध में पाकिस्तानी सेना पर भारतीय विजय का प्रतीक है। अब जब कि युद्ध को समाप्त हुए दो दशक दो दशक पूरे हो चुके हैं, जीत का जश्न मनाने और वीर पुरुषों के बलिदानों का सम्मान करने के अलावा, इससे सीखे गए सबक की समीक्षा करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

‘कारगिल युद्ध समीक्षा समिति’ ने कारगिल की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए राष्ट्रीय और तीनों सेनाओं के स्तर पर अपनाए जाने वाले शीघ्र, मध्यम और दीर्घकालिक उपायों के लिए अपनी सिफारिशें दीं। अफसोस की बात है कि सिफारिशों पर कार्रवाई मंशा, गति और पहुंच के संदर्भ में अपेक्षा से काफी कम रही है। सिफारिशों को अनदेखा करने का नतीजा ये हुआ कि चीन पाकिस्तान के अलावा नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में सैन्य क्षेत्र में विशेष रूप से प्रवेश कर रहा है। सर्वविदित है कि देश की सुरक्षा का खर्च कम नहीं है। खेद का विषय है युद्ध के बाद के इन वर्षों में 2001 में किये गए संकल्प भुला दिए गए हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से समय की मांग क्या है?

आक्रामक मानसिकता उड़ी हमले के बाद की गयी सर्जिकल स्ट्राइक और कुछ माह पूर्व पाकिस्तान के काफी अंदर बालाकोट में आतंकी शिविरों पर हवाई हमले, हमारी युद्ध नीति में आक्रामक बदलाव के उदाहरण हैं। हालांकि ये दोनों ऑपरेशन प्रकृति में प्रतिक्रियात्मक थे। पाकिस्तान अभी भी सुधरा नहीं है और नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी तथा जम्मू कश्मीर के अन्य इलाकों में हिंसा और आतंकवाद की घटनाएँ अब तक ज़ारी हैं। नियंत्रण रेखा और अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार करने की भारतीय इच्छाशक्ति को एक घोषित नीति के रूप में प्रदर्शित नहीं किया गया है। पाकिस्तान और आतंकवादी संगठन इस रक्षात्मक मानसिकता को भारत की कमजोरी मानते हैं और भारत सरकार और सुरक्षा बलों के धैर्य का परीक्षा समय-समय पर करते रहते हैं। जब तक हम अपनी मानसिकता नहीं बदलते हैं और दुश्मन के लिए युद्ध की लागत नहीं बढ़ाते हैं, यथास्थिति बदलने की संभावना नहीं है। मजबूत और निर्बाध सूचना तंत्र कई सशक्त और आधुनिक उपकरणों से लैस खुफिया एजेंसियाँ कारगिल युद्ध के बाद बनायीं गयीं।

सभी सराहनीय रूप से काम भी कर रही हैं, लेकिन इन सभी में आपसी समन्वय की कमी है। मानव, इलेक्ट्रॉनिक, साइबर, हवाई और अंतरिक्ष पर आधारित खुफिया संसाधनों का एकीकरण अभी भी एक दूर का सपना है। उड़ी में आर्मी कैंप पर हमला और इस वर्ष का पुलवामा आत्मघाती हमला, सूचना तंत्र में निहित कमियों और समन्वय के अभाव का ज्वलंत उदहारण हैं। संसाधनों, क्षमता और कमान का एकीकरण और एकीकरण ही इस से आगे जाने का एकमात्र उपाय है। सुरक्षा बलों और अन्य एजेंसियों का आपसी तालमेल हालांकि 1999 में जमीनी लड़ाई मुख्य रूप से थलसेना द्वारा लड़ी गई थी, लेकिन वायुसेना ने दुश्मन को भीतर जा कर मारने के साथ-साथ सैनिकों को स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए सुरक्षित वायुसीमा प्रदान करके महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वायुसेना अन्य क्षेत्रों से भारी रसद के साथ-साथ सैन्य टुकड़ियों को युद्धक्षेत्र तक पहुँचाने के लिए भी उत्तरदायी थी और वायुवीरों ने ये सभी काम बखूबी निभाए।

नौसेना ने भी पश्चिमी और पूर्वी जल बेड़ों को अरब सागर में तैनात किया था ताकि आवश्यकता पड़ने पर पाकिस्तानी नौसेना और बंदरगाहों पर हमला किया जा सके। कारगिल युद्ध ने, एक बार फिर सेनाओं के आपसी तालमेल की आवश्यकता को रेखांकित किया था। हम अभी भी संयुक्त थियेटर कमांड, (अंडमान और निकोबार कमांड को छोड़ कर) पर विचार ही कर रहे हैं। हाल ही में साइबर कमान का भी गठन हुआ है पर ‘चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ’ (CDS) की नियुक्ति जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे अभी भी फाइलों में बंद हैं। सेना के तीनों अंगों के लिए रणनीतिक योजना काफी हद तक रक्षा मंत्रालय के नौकरशाहों द्वारा संभाली जाती है, जिस से कई गुना बेहतर विकल्प मौजूद हैं। एकीकृत रक्षा मंत्रालय सिर्फ नाम का ही एकीकृत है। पिछले पाँच वर्षों के कार्यकाल में तीन बार रक्षा मंत्री का बदला जाना अच्छे संकेत नहीं हैं।

वर्तमान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मंत्रालय की बागडोर सँभालने के बाद कई बड़े कदम उठाये हैं, पर जब तक मंत्रालय से लालताशाही को कम नहीं किया जाता, स्थिति में सुधार संभव नहीं है। सामरिक तैयारी हम 1999 में इतने बड़े युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं थे। युद्ध सामग्री और सैन्य टुकड़ियों को भारी मात्रा में दूसरे इलाकों से युध्क्षेत्र तक लाया गया। ये अच्छी बात रही की चीन ने इस में हस्तक्षेप नहीं किया और न ही युद्ध पश्चिमी सीमा के अन्य इलाकों में फैला। यह सिर्फ हमारे सैनिकों की बहादुरी, दृढ़ इच्छाशक्ति और बलिदान की भावना थी जिसने हमें इस युद्ध में विजय दिलाई। युद्ध के बाद की अवधि में हमने एक माउंटेन स्ट्राइक कोर को खड़ा किया है। जोजी-ला के पार जमे हुए मैदानों में टैंकों को तैनात किया है और साथ ही पश्चिमी सीमा पर त्वरित हमलावर तत्वों के पुनर्गठन के रूप में एकीकृत लड़ाई समूहों या आईबीजी तैनाती की प्रक्रिया में है। लेकिन युद्धपोतों, लड़ाकू विमानों, तोपखाने, टैंकों और वायु रक्षा प्रणालियों के मामले में महत्वपूर्ण उपकरणों खरीद अब भी सरकारी नौकरशाही, देरी और राजनीतिक संवेदनहीनता से ग्रस्त है। रक्षा के लिए किया गया बजटीय आवंटन आवश्यकता को पूरा करने के लिए कम है, वह भी तब जब भविष्य के किसी भी टकराव में चीन-पाक की मिलीभगत लगभग तय है।

प्रश्न यह है कि क्या हम वास्तव में भविष्य में ढाई मोर्चों पर लड़ाई के लिए तैयार हैं? रक्षा सौदे विवादों में घिरे रहने के अलावा यह प्रक्रिया धीमी गति और सरकारी तंत्र की उदासीनता से पीड़ित है। हमें प्रक्रिया को सरल बनाने और क्षेत्रीय सुरक्षा चुनौतियों के साथ प्राथमिकता सूची को फिर से तैयार करने की आवश्यकता है।‘मेक इन इंडिया’ एक अच्छी अवधारणा है और रक्षा विनिर्माण में निजी कंपनियों को समान अवसर देने की रक्षा मंत्रालय की हालिया घोषणा एक स्वागत योग्य कदम है। लेकिन रक्षा सौदों में होने वाली देरी सेनाओं की तैयारी पर विपरीत असर डालती है। नौसेना और वायुसेना, दोनों को ही अपने प्राथमिक कार्यों को करने में सक्षम बनाने के लिए प्रमुख संसाधनों की आवश्यकता है। समय है कि काम न करने वाले अंगों को काट फेंका जाए। आर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड के पुनर्गठन का भी समय आ चुका है और आयुध निर्माणियों की जवाबदेही तय करने का भी।

रूस के अलावा अमरीका, इजराइल, दक्षिण अफ्रीका और फ्रांस समेत कई देश रक्षा क्षेत्र में हमारे साथ काम करने के इच्छुक हैं, पर हमारा तंत्र इस काम में स्वयं ही बाधा बना बैठा है। विजय का अंतिम पड़ाव, पैदल सैनिक दुर्गम इलाकों में लड़ाई अंततः थल सेना की पैदल टुकड़ियों (इन्फेंट्री) द्वारा ही लड़ी जाएगी। इसके लिए, हमें तकनीकी रूप से आधुनिक पैदल सेना की आवश्यकता है, जो अपने को बदलते हुए युद्ध्क्षेत्र के अनुसार ढाल सके और नयी युद्ध प्रणाली के तहत आने वाली हर प्रकार की चुनौती का सामना कर सके। हम लगभग एक दशक से 4G सैनिक या ‘फोर्थ जनरेशन सोल्जर’पर काम कर रहे हैं। अब जा कर सरकार इन्सास राइफल को स्वदेशी रूप से निर्मित AK-203 में बदलने की योजना बना रही है। सूचना और संचार के कुछेक क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो थल सेना के इस सबसे महत्वपूर्ण अंग में कोई ख़ास सुधार नहीं हुआ है। ध्यान रहे कि सैनिकों का मनोबल एक महत्वपूर्ण लड़ाई जीतने वाला कारक है।

अफसोस की बात है कि बीते दो दशकों में वेतन और भत्ते के साथ सैनिकों से जुड़े कई महत्वपूर्ण मुद्दों को सराकरी तौर पर नज़रंदाज़ किया गया है।एक रैंक एक पेंशन और अभी हाल ही में युद्ध में घायल सैनिकों की पेंशन से जुड़े मुद्दे गलत कारणों से चर्चा में आये हैं जो कि देश की सुरक्षा के लिए स्वस्थ संकेत नहीं कहे जा सकते। रक्षा मंत्री ने सैनिकों के गौरव और उनको मिलने वाली मूलभूत सुविधाओं में कमी न करने के अपने संकल्प को दोहराया है पर इस विषय को गंभीरता से लेने का वक्त आ चुका है। सैनिकों को फाइलों में न उलझाया जाए तो ही ठीक है। सूचना युद्ध कारगिल युद्ध में हम सूचना के क्षेत्र में भी विजयी रहे। हमने मीडिया की लड़ाई भी जीती और पूरी दुनिया ने हमारे पक्ष पर विश्वास किया। कारगिल युद्ध को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हमारे ड्राइंग रूम में परोसा और देखा जाए तो पूरा देश ही युद्ध में शामिल था। मीडिया का दबाव और पहुँच ऐसी थी कि पाकिस्तान के पास हार स्वीकार करने अलावा कोई विकल्प नहीं था। यह सूचना युद्ध का ही कमाल था कि युद्ध को सीमित रखा गया और पाकिस्तान की आणविक हथियारों के इस्तेमाल की गीदड़ भभकी भी उजागर हो गयी। युद्ध में किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप का विकल्प शत्रु को नहीं दिया गया।

शत्रु के हताहत सैनिकों को पूरे सैनिक सम्मान के साथ दफनाये जाने की खबरों और चित्रों ने पूरे विश्व में हमारे सैनिकों के युद्धकौशल के साथ साथ मानवीय गुणों को पेश किया और हमें शत्रु पर नैतिक विजय भी दिलाई। परमवीर कैप्टन विक्रम बत्रा का 'ये दिल मांगे मोर' युद्ध में हमारे सैनिकों में जोश के संचार का मंत्र बन गया। सूचना युद्ध से बनी अनुकूल विश्व सम्मति ने पाकिस्तान को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया और हमारी जीत निश्चित की। लेकिन बाद के वर्षों में हमने सूचना युद्ध की बढ़त को खो सा दिया। युद्ध के अति महत्वपूर्ण पहलू की उपेक्षा को बालाकोट हमले के दौरान पूरे देश ने महसूस किया। पाकिस्तान अपने लापता F-16 लड़ाकू विमान और उसके मृत पायलट के बारे में पूरी दुनिया को भ्रमित करने में सक्षम रहा। प्रचार का सहारा ले कर बालाकोट में भारतीय हमले की सफलता पर ही पाकिस्तान ने प्रश्नचिन्ह लगा दिया। इस विषय में हमारी प्रतिक्रिया बहुत देर से आई और बहुत कारगर साबित नहीं हुई। हम इन्टरनेट और सोशल मीडिया के प्रभाव का इस्तेमाल नहीं कर पाए हैं जबकि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के बारे में अपने प्रपंच से भरे कथाक्रम को बनाये रखने में बड़ी हद तक सफल रहा है।

बुरहान वाणी की मौत के बाद हुई हिंसा और जानमाल के नुकसान के लिए से सोशल मीडिया पर किया गया आतंकी प्रचार और इस विषय में हमारी समझ की कमी मुख्य कारण रहे। कश्मीर घाटी के लोगों के लिए एक सशक्त विचारधारा निर्मित करने की आवश्यकता है, जो अभी भी हमारे शत्रुओं और अलगाववादियों के प्रचार के अधीन हैं। हमें साइबर योद्धा , मीडिया और धारणा प्रबंधन (परसेप्शन मैनेजमेंट) टीमों के गठन की अतिशीघ्र आवश्यकता है और साथ ही सूचना युद्ध के घटकों को एकीकृत करने और उन्हें सशक्त बनाने का समय भी आ चुका है। सेना ने एक अलग इकाई के रूप में सूचना युद्ध महानिदेशालय (DG IW) के गठन की घोषणा की है। इसके साथ मीडिया और साइबर युद्ध नीतियों को भी दोबारा से लिखे जाने की आवश्यकता है। अब समय है कि हम इस क्षेत्र में विशेषज्ञों को भर्ती करें और दुनिया के अन्य देशों से सहयोग ले कर गँवाए हुए मौके की भरपाई करें। हमारे वीर जवानों के प्रति एक ईमानदार श्रद्धांजलि यह होगी कि राष्ट्र वर्तमान चुनौतियों को समझे और उन का सामना करे। केंद्र में इस समय एक मजबूत सरकार है और भविष्य में कारगिल जैसी स्थिति से बचने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए इस से ज्यादा उपयुक्त समय और वातावरण नहीं मिलेगा। तैयारियों के साथ साथ हमें युद्ध के प्रति अपनी मानसिकता में स्पष्ट बदलाव प्रदर्शित करना चाहिए। हम पहले ही 20 साल पीछे हैं। इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी ये दिल ‘स्टिल’ मांगे मोर।
कर्नल अमरदीप सिंह, सेना मेडल (से.नि)

Related Story

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!