कर्नाटक चुनावी शंखनाद: राहुल की राजनीतिक सूझ-बूझ की कठिन परीक्षा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 27 Mar, 2018 12:09 PM

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कर्नाटक में विधानसभ सभा चुनाव के लिए शंखनाद हो गया है। कर्नाटक में 12 मई को चुनाव होने वाले हैं जबकि नतीजे 15 को आएंगे। पंजाब केसरी के संवाददाता नरेश कुमार बता रहे हैं कि कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ जनता दल सैकुलर के लिए कर्नाटक का यह चुनाव किस...

नेशनल डेस्क: कर्नाटक में विधानसभ सभा चुनाव के लिए शंखनाद हो गया है। कर्नाटक में 12 मई को चुनाव होने वाले हैं जबकि नतीजे 15 को आएंगे। पंजाब केसरी के संवाददाता नरेश कुमार बता रहे हैं कि कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ जनता दल सैकुलर के लिए कर्नाटक का यह चुनाव किस प्रकार से बड़ी चुनौती साबित होगा। यदि जे.डी.एस. का कांग्रेस के साथ गठजोड़ न हुआ तो भाजपा फायदे में रह सकती है और यदि कांग्रेस गठजोड़ करने में कामयाब हो गई तो नुक्सान भाजपा को होगा।

राहुल के लिए कर्नाटक में कठिन परीक्षा
पार्टी के अध्यक्ष का पद संभालने के बाद राहुल गांधी के लिए कांग्रेस के एकमात्र बड़े राज्य में बची अपनी सरकार को बचाना सबसे बड़ी चुनौती होगी और यहां उनकी राजनीतिक सूझ-बूझ की कठिन परीक्षा होगी। इससे पहले राहुल गांधी ने गुजरात में जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घर में चुनौती दी थी लेकिन इस बार भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस के शासन वाले इस राज्य में कांग्रेस को चुनौती देंगे। यह चुनौती इसलिए भी गंभीर है क्योंकि 2013 में कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भाजपा वहां मजबूत हुई है। 2013 के विधानसभा चुनाव के एक साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को 17 सीटें हासिल हुईं जबकि कांग्रेस महज 9 सीटें हासिल कर सकी। 2 सीटें जनता दल सैक्युलर के हिस्से आई थीं। राज्य में भाजपा की मजबूती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2013 में 19.89 फीसदी वोट हासिल करने वाली भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 43.37 फीसदी वोट हासिल किए। यह राज्य में भाजपा द्वारा अब तक हासिल किए गए वोटों में सबसे ज्यादा प्रतिशत है। इतिहास गवाह रहा है कि जब-जब कांग्रेस कमजोर हुई है तब-तब दक्षिण भारत ने कांग्रेस का साथ दिया है। ऐसा इंदिरा गांधी के वक्त भी हुआ था, लेकिन अब देखना होगा कि राहुल गांधी अपनी पकड़ वाले एकमात्र सबसे बड़े राज्य में पार्टी की सत्ता कायम रख पाएंगे या नहीं।

कर्नाटक में सत्ता बदलने की परंपरा
कर्नाटक के पिछले 5 चुनावों का विश्लेशण किया जाए तो पता चलता है कि राज्य में हर 5 साल बाद सत्ता परिवर्तन हो जाता है। 1994 में कर्नाटक में जनता दल की सरकार थी और 1999 के अगले चुनाव में ही राज्य की जनता ने जनता दल को नकार कर कांग्रेस को सत्ता सौंप दी। 2004 के चुनाव में कांग्रेस भी सत्ता से बाहर हो गई और भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी व राज्य में जे.डी.एस. व भाजपा की मिली-जुली सरकार बनी। यह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और 2008 में राज्य में हुए चुनाव के दौरान भाजपा 110 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी और राज्य में सरकार बनाई। 2013 में कर्नाटक की जनता ने ऐसी पलटी मारी कि 110 सीटों वाली भाजपा को 40 सीटों पर ला पटका और 122 सीटों के साथ कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में आ गई। मजेदार बात यह रही कि जनता का फैसला इतना एकतरफा था कि भाजपा के 110 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई।

इतनी भी कमजोर नहीं कांग्रेस
कर्नाटक में पिछले 5 विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस 2 बार ही 1999 व 2013 में स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में आई है लेकिन राज्य में पार्टी का वोट बैंक स्थिर रहा है। 2013 में कांग्रेस को 36.59 प्रतिशत वोट मिले थे जबकि 2008 में पार्टी 34.86 प्रतिशत वोटों के साथ दूसरे नंबर पर थी। 2004 के चुनाव में भी पार्टी को भले ही 65 सीटें मिलीं लेकिन उसे 35.27 फीसदी वोट हासिल हुए। 1999 के चुनाव में कांग्रेस को 132 सीटों के साथ 40.84 फीसदी वोट हासिल हुए थे। 1994 में भी कांग्रेस 26.95 फीसदी वोटों के साथ दूसरे नंबर की पार्टी थी। मतलब साफ है कि पिछले 19 साल में कांग्रेस का वोट लगभग 35 फीसदी तक कायम रहा है। ऐसे में भाजपा के लिए कर्नाटक में जीत हासिल करना इतना भी आसान नहीं रहेगा।


 

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