कर्नाटक चुनाव: न दोस्त न दुश्मन, बस सत्ता को नमन

Edited By Anil dev,Updated: 16 May, 2018 04:41 PM

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कहते हैं राजनीति में कोई स्थाई दुश्मन या दोस्त नहीं होता। सब समीकरणों के हिसाब से तय होता है।  कर्नाटक के मौजूदा हालात ने इस कहावत  को एक बार फिर से  सच साबित किया है। तीन रोज पहले तक एक दूसरे के खिलाफ लडऩे वाले आज एक दूसरे को सी एम सीट ऑफर कर रहे...

नेशनल डेस्क(संजीव शर्मा): कहते हैं राजनीति में कोई स्थाई दुश्मन या दोस्त नहीं होता। सब समीकरणों के हिसाब से तय होता है।  कर्नाटक के मौजूदा हालात ने इस कहावत  को एक बार फिर से  सच साबित किया है। तीन रोज पहले तक एक दूसरे के खिलाफ लडऩे वाले आज एक दूसरे को सी एम सीट ऑफर कर रहे हैं ताकि शक्तिशाली न उभर पाए। जो सिद्धारमैया कभी खुद जेडीएस में थे और देवेगौड़ा से नाराज होकर कांग्रेस में चले गए थे , वही  सिद्धारमैया आज बीजेपी को रोकने के लिए उन्हीं देवेगौड़ा के बेटे कुमार स्वामी को सिंहासन ऑफर कर रहे हैं।  कभी कुमार स्वामी को जेडीएस  का उत्तराधिकारी बनाए जाने से खफा होकर ही 2005  में जेडीएस छोड़ी थी। इनके फिर से दोस्त बन जाने से भारतीय सियासत की ऐसी दुश्मनियां/ दोस्तियां फिर से स्मरण हो उठी हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब ऐसा ही बिहार में हुआ था। जेडीयू  और बीजेपी में तलाक हुआ। मोदी -नीतीश  के बीच  क्या क्या  बयानबाजी न हुई। 
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सरकार बनाने तक पहुंची लालू -नीतीश के बीच दोस्ती
मामला एकबारगी तो डीएनए तक पहुंच गया। ऐसे में लालू -नीतीश के बीच दोस्ती हुई और यह दोस्ती सरकार बनाने तक पहुंची।  हालात बदले तो दोस्त-दुश्मन भी बदल गए। आज नीतीश-मोदी फिर एक बार दोस्त हैं और लालू  बेहाल।कुछ ऐसा ही यू पी में भी हुआ था।  पहले 'हाथ ' ने  साइकिल का हैंडल थामा।  सफर अधूरा रहा, मंजिल नहीं मिल पाई तो  सपा ने उपचुनाव  में बीजेपी को रोकने के लिए हाथी को साथी बना लिया। बबुआ अखिलेश ने बुआ मायावती को मना लिया।  और इस तरह से 1985  में सरकार गिरने जो तलवारें मुलायम और माया के बीच खिंचीं वह अब गलबहियां बन गई हैं। इसी तरह शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मसला उछाला था और एनसीपी का गठन किया था।  बाद में हालात बदले और 1999 में एनसीपी और कांग्रेस ने महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार बनाई। डेढ़ दशक तक दोनों की दोस्ती कायम रही।इसी तरह ममता बनर्जी जो कभी एनडीए सरकार में मंत्री रहीं अब बीजेपी को कोसने का कोई मौका नहीं छोड़तीं।
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राज्यों में भी खूब बने समीकरण 
यथानुसार  दोस्तियां/दुश्मनियां राज्यों  की राजनीति  में भी परवान चढ़ीं।  इनमे सबसे अधिक चर्चित रही  बीजेपी और पीडीपी की दोस्ती। शायद ही किसी ने सोचा होगा कि मूल विचारधारा में एक दूसरे के विपरीत ध्रुव  पीडीपी और बीजेपी साथ मिलकर सरकार बनाएंगे।  पिछले चुनाव में पीडीपी को सबसे अधिक 28  तो बीजेपी को 25  सीटें मिलीं। बहुमत के लिए 44  का आंकड़ा चाहिए था। और यह कमाल पीडीपी -बीजेपी गठबंधन  ने कर डाला। कुछ ऐसा ही कमाल 1998  में  हिमाचल में हुआ था।  केंद्रीय संचार राज्य मंत्री सुखराम संचार घोटाले के कारण  कांग्रेस से बाहर हो गए थे। विधानसभा चुनाव में उनकी बनाई नई पार्टी के कारण कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी। समीकरणों ने ऐसा पलटा खाया कि  जिस बीजेपी ने संचार घोटाले को लेकर 15  दिन तक संसद ठप की थी वही बीजेपी सुखराम के समर्थन पर चढ़कर हिमाचल में सरकार बना रही थी। 
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नहीं बदली बादलों -बीजेपी की दोस्ती 
दिलचस्प ढंग से  माहौल में एक दोस्ती ऐसी भी है जो 'धर्म-वीर ' की जोड़ी साबित हुई। यह थी अकाली दल बादल और बीजेपी की दोस्ती।  दोनों के बीच नब्बे के दशक में दोस्ती हुई जो अभी भी जारी है। हालांकि बीच में कई बार ऐसे हालात जरूर बने कि लगा कि दोस्ताना बिखर गया , लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

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