कर्नाटक चुनावः जोड़-तोड़ में एक बार फिर तार-तार होती दिखेगी मर्यादा?

Edited By Anil dev,Updated: 16 May, 2018 10:57 AM

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कर्नाटक के खंडित जनादेश के मायने यही हैं कि न किसी की हार हुई, न किसी की जीत। भारतीय जनता पार्टी को जनता ने बहुत कुछ दिया, पर इतना नहीं दिया कि वह बगैर जोड़तोड़ सरकार बना सके। हालांकि, येदियुरप्पा ने राज्यपाल से मिलकर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर...

नई दिल्ली: कर्नाटक के खंडित जनादेश के मायने यही हैं कि न किसी की हार हुई, न किसी की जीत। भारतीय जनता पार्टी को जनता ने बहुत कुछ दिया, पर इतना नहीं दिया कि वह बगैर जोड़तोड़ सरकार बना सके। हालांकि, येदियुरप्पा ने राज्यपाल से मिलकर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सरकार बनाने का दावा पेश करने में देर नहीं लगाई। कांग्रेस मायूस है, क्योंकि अपने बलबूते सत्ता में वापसी सपना ही रह गया। कांग्रेस ने आनन-फानन में जनता दल (सेक्युलर) को समर्थन देकर दांव पलटने की कोशिश जरूर की है। जेडीएस ने भी अपना दावा पेश कर दिया है। लेकिन सवाल इससे आगे का है, क्या सरकार बनाने की जोड़तोड़ में नैतिकता और मर्यादा एक बार फिर तार-तार होती दिखेगी? क्या कर्नाटक में च्रिजॉर्ट पॉलिटिक्स फिर से अवश्यंभावी है?

पर्याप्त संख्या बल न हो फिर भी सरकार बनाने की जोड़तोड़ में राजनीतिक दल क्या-क्या गुल खिलाते रहे हैं, हममें से कोई इससे अनजान नहीं है। नैतिकता और सिद्धांत को भूलकर विधायकों को पाला बदलने में आखिर वक्त ही कितना लगता है। 2004 का कर्नाटक विधासभा चुनाव ही याद कर लीजिए, तब भी खंडित जनादेश था। बीजेपी 79 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी, पर बहुमत से काफी दूर थी। उस दौरान जनता दल (सेक्युलर) ने अपने 58 विधायकों को बेगलुरू के पास रिजॉर्ट में भेज दिया था। 2006 में कुमारस्वामी ने जब बीजेपी के साथ जाने का मन बनाया था, तो वह गोवा के एक रिजॉर्ट पहुंच गए थे। 2008 के विधानसभा चुनाव में भी जब येदियुरप्पा की अगुवाई में बीजेपी को बहुमत के जादुई आंकड़े से 2 सीटें कम रह गई थी, तब भी कांग्रेस और जेडीएस के कई विधायकों को रिजॉर्ट में रखा गया था। दरअसल, कर्नाटक का च्रिजॉर्ट पॉलिटिक्सज् से बहुत पुराना नाता रहा है। 

1984 में विश्वास मत हासिल करने के पहले एन टी रामाराव आंध्र प्रदेश के विधायकों को लेकर बंगलुरू के रिजॉर्ट पहुंच गए थे। 2002 में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को भी अपने विधायकों को बंगलुरू के रिजॉर्ट पहुंचाना पड़ा था, ताकि वह विश्वास मत हासिल कर सकें। पिछले साल तो राज्यसभा चुनाव के दौरान भी ऐसा ही वाकया पेश आया था। कांग्रेस ने गुजरात के अपने 44 विधायकों को बंगलुरू के एक रिजॉर्ट पहुंचा दिया था। देश की राजनीति में ऐसे कई उदाहरण हैं, जब विधानसभा में बहुमत हासिल करने के लिए विपक्षी पाले के विधायकों को ऐन वक्त पर च्मैनेजज् कर लिया गया और बाद में उन्हें उपकृत कर दिया गया। 

हाल के दिनों में कई राज्यों में पर्याप्त संख्या बल न होने पर भी बीजेपी ने सरकार बनाई और कांग्रेस ने राजनीतिक नैतिकता-मर्यादा चूर-चूर करने की तोहमतें लगाई। अब कर्नाटक में बीजेपी यदि 104 के संख्या बल के बूते भी सरकार बनाने में कामयाबी हासिल कर ली तो निस्संदेह यही आरोप फिर से दोहराए जाएंगे। वैसे भी है कि यह जोड़तोड़ से ही संभव हो सकेगा। वहीं, अगर कांग्रेस और जेडीएस सरकार बनाने में सफल हो जाते हैं तो ऐसे ही आरोप बीजेपी जड़ेगी, क्योंकि वह भी अवसरवादी गठबंधन ही कहलाएगा। बहरहाल, सरकार बनने तक अभी कई राजनीतिक घटनाक्रम शेष है। वैसे भी यह अनुमान तो पहले से था कि जनादेश खंडित होगा और कर्नाटक का असल नाटक नतीजे आने के बाद चलेगा।

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