Edited By shukdev,Updated: 15 Apr, 2020 06:45 PM
कोरोना वायरस महामारी के संकट के बीच अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर फंसे श्रमिक वापसी के लिए बेचैन हैं। इन श्रमिकों का रोजगार और रुपए खत्म हो चुके हैं और भविष्य अनिश्चतता के अंधेरे में है। कई श्रमिकों का कहना है कि कमाई नहीं हुई तो कर्ज ...
नई दिल्ली: कोरोना वायरस महामारी के संकट के बीच अपने घरों से सैकड़ों किलोमीटर दूर फंसे श्रमिक वापसी के लिए बेचैन हैं। इन श्रमिकों का रोजगार और रुपए खत्म हो चुके हैं और भविष्य अनिश्चतता के अंधेरे में है। कई श्रमिकों का कहना है कि कमाई नहीं हुई तो कर्ज का ऐसा दल-दल शुरू होगा जिसमें वे फंसते चले जाएंगे और बाहर निकल पाना उनके लिए मुश्किल होगा। बंद के तीन सप्ताह बीत चुके हैं और आने वाले तीन सप्ताह के बाद भी वापसी निश्चित नहीं हैं। ये वह श्रमिक हैं जिन्होंने बंद के शुरु में अन्य सैंकड़ों मजदूरों की तरह हजारों किलोमीटर दूर अपने घर के लिए पैदल यात्रा आरंभ करने के बजाय बंद के खत्म होने का इंतजार किया था। अब यह इंतजार और लंबा होता चला जा रहा है।
घर से बाहर फंसे श्रमिकों का कहना है कि उनके पास जो थोड़े बहुत रुपए थे वह खर्च हो चुके हैं। रेलवे के पार्सल विभाग में नियमित मजदूरी करने वाले अनिल यादव उत्तर प्रदेश के महराजगंज के रहने वाले हैं। वह अपने घर जाने की तैयारी में थे लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के बाद वह यहां फंस गए। वह गेहूं की कटाई के लिए अपने गांव जाने के लिए बेचैन हैं।
यादव ने कहा कि एक एकड़ जमीन में लगी उनकी गन्ने की फसल पहले ही तबाह हो चुकी है। इससे उनके परिवार को मदद मिल सकती थी लेकिन फसल ही नहीं कट पाई। उन्होंने कहा कि उनके घर में पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चे तथा बुजुर्ग माता-पिता हैं। कोई दूसरा सहारा नहीं है। उनके पास पैसे भी नहीं हैं और वह खुद यहां फंसे हैं। उन्होंने कहा कि उनका परिवार गहरे आर्थिक नुकसान में है और रोज वापस लौट आने की गुहार लगाता है ‘लेकिन मैं कैसे जाऊं।’ उन्होंने कहा कि वह एक महीने में 7,000-8,000 रुपए कमाते थे लेकिन अब नौकरी और रुपए दोनों गए। यादव संकट के इस दौर में यमुना खेल परिसर शिविर में रह रहे करीब 330 बेघर श्रमिकों में से एक हैं।
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले की रहने वाली आशा देवी चार बच्चों की मां हैं। वह अपने आंसू रोकने की कोशिश करते हुए कहती हैं कि उनके दो बेटे (14 साल और छह साल) गांव में अकेले हैं। इनमें से एक मजदूरी और छोटे भाई की देखभाल करता है। उन्होंने कहा कि वह काफी डरी हुई हैं, यह महिला 13 दिहाड़ी मजदूरों के समूह का हिस्सा है। समूह में उसके पति भी हैं, उन्होंने बताया कि यह समूह पिछले महीने की शुरुआत में गाजियाबाद के एक ईंट भट्ठे में काम करने आया था।
इन लोगों का कहना है कि प्रधानमंत्री द्वारा 24 मार्च को बंद की घोषणा किए जाने के बाद इन्हें नौकरी पर रखने वाले ठेकेदार ने राशन का आश्वासन दिया था लेकिन बाद में वह गायब हो गया। महिला ने कहा,‘मैं वापस घर जाना चाहती हूं, अगर हमें इसके लिए मरना भी पड़े तो हम साथ में मरने के लिए तैयार हैं।’
यह दोनों ऐसे हजारों दिहाड़ी मजदूरों में शामिल हैं जो फसल काटने के महीने में अपने घर लौट जाते थे। इन श्रमिकों का कहना है कि इनका परिवार गहरे आर्थिक संकट में है। दिल्ली सरकार 7,00,000 लोगों को विभिन्न शिविरों में भोजन मुहैया करा रही है। इसमें श्रमिक, भिखारी और बेघर लोग शामिल हैं।