आम चुनाव 2019: क्या BJP के खिलाफ बन पाएगा महागठबंधन?

Edited By Anil dev,Updated: 06 Dec, 2018 12:27 PM

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2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा के विजयरथ को रोकने के लिए विपक्षी दल एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों की अलग-अलग विचारधारा के मद्देनजर प्रश्र यह उठ रहा है कि क्या भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनना संभव है।

नई दिल्ली(विशेष): 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों में भाजपा के विजयरथ को रोकने के लिए विपक्षी दल एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों की अलग-अलग विचारधारा के मद्देनजर प्रश्र यह उठ रहा है कि क्या भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनना संभव है। देश में गठबंधन की राजनीतिइसलिए अनिवार्य हो गई है कि आज सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को खतरा पैदा हो रहा है। भाजपा के राइट विंग अधिनायकवाद रवैए का विरोध करने के लिए विपक्षी पार्टियों के लिए एकमात्र विकल्प गठबंधन ही बचा है। आम लोग और सभी सामाजिक ग्रुप विपक्षी पार्टियों पर दबाव बना रहे हैं कि वह अपने मतभेदों को दरकिनार करें और संवैधानिक संस्थाओं की सुरक्षा के लिए एकजुट हो जाएं, जिन पर मौजूदा समय में हमला किया जा रहा है। 

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लोकतंत्र की बहाली
2019 के चुनाव लोकतंत्र के सिद्धांत को फिर से बहाल करने और संस्थाओं को मजबूती प्रदान करने का मौका हैं, जिसमें प्रतिबद्धता और भागीदारी को शामिल करने पर जोर दिया जाए। मौजूदा समय में गठबंधन उसी तरह का होगा जो 1977 में था, जब सभी राजनीतिक संगठनों ने इंडियन नैशनल कांग्रेस को संगठित होकर चुनौती दी थी। कुल मिलाकर हम इस विचार के लिए प्रतिबद्ध हैं जो भारत के आदर्श को बचाता है, जिसमें आजादी, स्वतंत्रता, सामाजिक और आर्थिक न्याय व धर्मनिरपेक्षतावाद शामिल हैं। 


गठबंधन की राजनीति में करना पड़ता है कठिनाईयों का सामना
यह हमारे घोषणा-पत्र या सांझे न्यूनतम कार्यक्रम के अंग होंगे। हम सभी जानते हैं कि भारत में गठबंधन को उदारवादी क्षेत्रों से खराब प्रचार मिला है विशेषकर आर्थिक उदारवारता को जिसने गठबंधन को कमजोर सरकारों के रूप में बताया है। गठबंधन में विभिन्न राजनीतिक दलों के हित संलिप्त होते हैं। कार्यकारिणी के बीच आंतरिक लोकतंत्र कमजोर हो जाता है। इस गठबंधन में शामिल छोटे दल और क्षेत्रीय पार्टियां जमीनी स्तर पर अपने हित देखती हैं। वह राष्ट्र के असली समुदायों की वास्तविक महत्वाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं क्योंकि वे बड़ी और राष्ट्रीय पार्टियों को अधिक जवाबदेह बनाती हैं। गठबंधन की राजनीति में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। 

पहला: एक गठबंधन में सभी राजनीतिक दलों को एक साथ जोडऩा कठिन होता है। राजनीतिक दलों में राजनीतिक दूरियों को खत्म करने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। दूसरी तरफ मतदाताओं के बीच सामाजिक दूरी भी एक बाधा होती है।

दूसरा: गठबंधन को एकजुट रखना कठिन काम होता है। गठबंधन की स्थिरता बनाए रखने के लिए व्यावहारिक सांझा न्यूनतम कार्यक्रम पर सहमति जरूरी है।

तथाकथित गठबंधन के विकास की कोई विचारधारा नहीं
2014 के लोकसभा चुनावों में गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला। उसने राष्ट्रीय राजनीति में अपनी मजबूत सांझेदारी स्थापित की। इसका प्रमाण यह है कि जब भाजपा 2014 में सत्ता में आई तो उसकी केवल 5 राज्यों में सरकारें थीं जो अब बढ़ कर 19 राज्यों में पहुंच गई हैं। भारतीय राजनीति में लोगों का समर्थन केवल उसी पार्टी या सरकार को मिलता है जो मजबूती के साथ अच्छा प्रशासन दे पाती है। अगर हम इसे इस नजरिए से देखें तो यह कहना आसान होगा कि भाजपा को 2014 में सत्ता में आने के लिए लोकप्रियता प्राप्त हुई। 

 दीर्घकालीन राजनीतिक परियोजनाओं के लिए मतभेदों को दरकिनार करना जरूरी
यह महत्वपूर्ण बात है कि सभी विपक्षी दलों को ऊपर लिखे विचारों से सबक लेना चाहिए। गठबंधन के घटकों के अतीत के व्यवहार बारे प्राय: यह अवधारणा होती है कि किसी भावी गठबंधन के लिए उनकी प्रतिबद्धता ठोस होना एक संकेत है। इससे एक समस्या पैदा होती है कि गठबंधन में शामिल पार्टियों में विश्वास की कमी के कारण वे एक-दूसरे से दूर रहती हैं। गठबंधन में निवेश को भी खतरा रहता है और उसे एकमुश्त समर्थन नहीं मिल पाता और इससे लगता है कि उनका प्रभाव बढ़ता है। न तो वास्तविक राजनीति में और न ही राजनीतिक व्यवहारिकता में ऐसा संभव है कि गठबंधन के घटकों को फिर से एकजुट होना पड़ता है क्योंकि उनको अतीत में मिले दुखों की याद आती है। 

बिहार में कर दिखाया था राजद ने ऐसा गठबंधन
राजद ने ऐसा गठबंधन बिहार में कर दिखाया था। हम गठबंधन के बहुमूल्य सिद्धांतों में विश्वास रखते हैं। गठबंधन राजनीति अब पहले से ज्यादा अनिवार्य हो गई है। क्योंकि सामाजिक न्याय के आदर्शों को ज्यादा तनाव और खतरे का सामना करना पड़ता है। अगर विपक्षी दल एक मंच पर आने में नाकाम रहते हैं तो वे भारत में समुदाय को हाशिए पर धकेल पाएंगे क्योंकि दलितों और अल्पसंख्यकों को सामाजिक और राजनीतिमें मामूली लाभ मिला है। 

2014 की भाजपा लहर
एक समय ऐसा भी था जब भाजपा एक विशेष क्षेत्र तक ही सीमित देखी जाती थी। अब समय बदल गया है और यह उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के सभी राज्यों में सक्रिय है। 2014 के लोकसभा चुनावों के बारे में कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के पक्ष में लहर थी, जिसने भाजपा को चुनाव में जीत दिलाने में मदद की थी। 2014 के चुनाव में पार्टी का लोगों में समर्थन बढ़ा। नए गठबंधन में उत्तर प्रदेश के चुनाव में सभी पार्टियां भाजपा के समर्थन में आ गईं और अब जद (यू) भी भाजपा के साथ है। असम, त्रिपुरा जैसे राज्यों में स्थानीय पार्टियां भाजपा को समर्थन दे रही हैं। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियों ने भाजपा को रोकने की कोशिश नहीं कीं पर प्रयास विफल हो गए। उदाहरण के तौर पर कांग्रेस केरल में कम्युनिस्टों के खिलाफ  चुनाव लड़ी है तो पश्चिम में उनसे हाथ मिलाया, मगर हार का सामना करना पड़ा। उत्तर प्रदेश के चुनावों में कांग्रेस ने सपा के साथ गठबंधन किया तो यह बुरी तरह से पराजित हुआ। 

विश्वसनीयता पर सवाल
अब एक बार दोबारा 2019 के आम चुनावों के लिए गठबंधन की बात हो रही है। प्रश्न यह है कि यह गठबंधन वास्तव में अस्तित्व में आएगा तो कांग्रेस की स्थिति क्या होगी। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा दोनों ही कांग्रेस को कोई महत्व नहीं दे रहीं। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की उपेक्षा कर रही है। तेलंगाना में भी कांग्रेस का कोई विश्वसनीय सांझेदार नहीं। इसके 2 कारण हैं। एक यह कि कांग्रेस ने देश में अपना आधार खो दिया है। दूसरा कांग्रेस नेतृत्व खो रही है। पार्टी में आंतरिक लोकतांत्रिक प्रणाली की कमी है। लोगों को कांग्रेस ने नाराज कर दिया है। वैचारिक वचनबद्धता की कमी ने भी पार्टी को समर्थकों से दूर कर दिया है। कोई भी पार्टी समर्थन को तैयार नहीं। ऐसा लगता है कि पार्टी जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के राष्ट्र विरोधी गैंग के साथ खड़ी है। कर्नाटक में इसने हिदुंअो को बांटने की कोशिश की और गुजरात में जाति के आधार पर बांट रही है। यह भाजपा की राष्ट्रवादी विचारधारा को खत्म करने की कोशिश कर रही है। अंत में यही कहा जा सकता है कि जब तक गठबंधन का फैसला नहीं होता तब तक यह काल्पनिक मुद्दा ही रहेगा।  

कौन होगा महागठबंधन का चेहरा?
नेतृत्व के प्रश्न का उदाहरण लीजिए, इसके लिए चेहरा कौन होगा। इसको समझना काफी कठिन है। नेताओं की कोई कमी नहीं है। विभिन्न राज्यों में बहुत से नेता हैं। सभी जानते हैं कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार नहीं करेंगी और न ही बसपा की मायावती और न ही राकांपा के शरद पवार कांग्रेस अध्यक्ष का नेतृत्व मानेंगे, जो खुद को गांधी से बड़ा नेता समझते हैं। यही नहीं उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू भी नेतृत्व के मामले में एक-दूसरे से मिले हुए नहीं हैं। अनुमान लगाना कठिन है कि वह गांधी या क्षेत्रीय पार्टी के किसी नेता का नेतृत्व स्वीकार करने के इच्छुक होंगे। भाजपा विरोधी महागठबंधन बनाने की कोशिश कर रही इन क्षेत्रीय पार्टियों के लिए एक सांत्वना देने वाली बात यह है कि सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव राजनीति में सक्रिय नहीं हैंऔर राजद के लालू प्रसाद यादव जेल में हैं। यह मामला उस समय और पेचीदा बन सकता है जब सपा के अखिलेश यादव और राजद के तेजस्वी यादव उच्च राजनीतिक पद पर अपना दावा कर जाएंगे।

भाजपा बन सकती है विरोधी महागठबंधन के रास्ते में बाधक
अगर यह पार्टियां नेतृत्व का मामला सुलझा लेती हैं तो भी भाजपा विरोधी महागठबंधन के लिए रास्ता प्रशस्त करने के लिए सभी मामलों को सुलझाया नहीं जा सकता। राज्य स्तरीय चुनावी गठबंधन के लिए भी कुछ मजबूरी होगी जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी महागठबंधन के गठन के रास्ते में बाधक बन सकती हैं। बसपा सपा का उदाहरण दिया जा सकता है। इस दलील के जवाब में बिहार का भी उदाहरण दिया जा सकता है। जहां जद (यू) के नीतीश कुमार और राजद के लालू प्रसाद यादव 2015 के चुनाव में एक साथ देखे गए तो एक-दूसरे का विरोध कर रही पार्टियां 2019 के चुनावों के लिए एक मंच पर क्यों नहीं आ सकती हैं। इसका जवाब साधारण है। हम सभी जानते हैं कि बिहार सरकार के गठन के डेढ़ वर्ष बाद गठबंधन का क्या हश्र हुआ। यह भी जानते हैं कि कर्नाटक में सरकार कैसे चलाई जा रही है जहां कांग्रेस और जनता दल (एस) घटक दल एक-दूसरे से उलझे हुए हैं। 

पेचीदगी, गठबंधन का सामना कौन करे
इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं, क्योंकि भाजपा के खिलाफ  महागठबंधन का रास्ता काफी पेचीदा है जो 2 तथ्यों से स्पष्ट है-पहला नेतृत्व का: भाजपा विरोधी महागठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा और दूसरा है राज्य स्तरीय चुनावों के मुकाबलों की प्रवृत्ति। विपक्षी पार्टियां भाजपा विरोधी महागठबंधन की कोशिश कर रही हैं मगर ये राज्यों में एक-दूसरे की विरोधी हैं।

गठबंधन वार्ता
अगर उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा, महाराष्ट्र में कांग्रेस और राकांपा, झारखंड में कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा और झारखंड विकास मोर्चा जैसी पार्टियां गठबंधन बना लेती हैं तो प्रश्र उठता है कि क्या तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस पश्चिम बंगाल में राजी हो पाएंगी। क्या उड़ीसा में बीजू जनता दल कांग्रेस से गठबंधन कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामदलों का गठबंधन कामयाब नहीं हुआ। यह प्रयोग पिछले विधानसभा चुनावों में असफल रहा। क्या आम आदमी पार्टी और कांग्रेस दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में गठबंधन करेंगी। क्या बसपा राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में कांग्रेस के साथ गठबंधन को तैयार होगी। हम सभी जानते हैं कि 2014 के लिए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच गठबंधन की वार्ता विफल रही है। हाल ही में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और बसपा में गठबंधन वार्ता विफल रही है। अब देखना यह है कि क्या कांग्रेस कर्नाटक जनता दल (एस) के साथ अपना गठबंधन बरकरार रखने में सफल रहेगी या नहीं।

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