लोकसभा चुनाव 2019: ममता बनर्जी की नजरें PM की कुर्सी पर!

Edited By Anil dev,Updated: 15 Mar, 2019 01:02 PM

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सिंगूर और नंदीग्राम में करीब 10 साल पहले सत्तारूढ़ वामपंथी सरकार के खिलाफ परेशान, भूखे और गुस्से से भरे हजारों लोगों का नेतृत्व करने वाली ममता बनर्जी को शायद ही उस समय यह पता रहा हो कि वह इतिहास की एक नई पटकथा लिखने की दहलीज पर हैं।

कोलकाता: सिंगूर और नंदीग्राम में करीब 10 साल पहले सत्तारूढ़ वामपंथी सरकार के खिलाफ परेशान, भूखे और गुस्से से भरे हजारों लोगों का नेतृत्व करने वाली ममता बनर्जी को शायद ही उस समय यह पता रहा हो कि वह इतिहास की एक नई पटकथा लिखने की दहलीज पर हैं। यह तो 10 साल पहले की बात हो गई। ममता बनर्जी एक बार फिर देश की राजनीति के केंद्र में आ खड़ी हुई प्रतीत होती हैं। अगर भाजपा नीत राजग सरकार 2019 के लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत लाने में विफल होती है तो बनर्जी भले खुद शीर्ष पद पर काबिज न हो पाएं लेकिन सत्ता की चाभी यानी किंगमेकर की भूमिका वह निभा सकती हैं। 

विपक्षी पार्टियों को जोडऩे में अहम भूमिका निभा सकती हैं ममता
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की कड़ी आलोचना करने वालों में से एक बनर्जी ने अब तक अपनी छवि ऐसी बनाई है जो सत्तारूढ़ राजग को सत्ता से बाहर करने की चाहत रखने वाली विपक्षी पाॢटयो को जोडऩे में अहम भूमिका निभा सकती हैं। वह इस साल जनवरी में एक रैली में एक मंच पर 23 विपक्षी पार्टियों के नेताओं को ले आने में सफल रही थीं। तृणमूल कांग्रेस के नेता सुदीप बंदोपाध्याय ने  बताया, ‘‘ ममता बनर्जी के नेतृत्व में आगामी नई सरकार में हम महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे हैं। देश की जनता नरेंद्र मोदी के डर के शासन से बचाने के लिए बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की तरफ देख रही है।‘‘ इससे संकेत मिलता है कि तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो बनर्जी की नजर दिल्ली की कुर्सी पर है। 

कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में ममता ने की थी राजनीतिक जीवन की शुरुआत 
तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी की राजनीतिक जीवन की शुरुआत अपने कॉलेज के जमाने में कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में शुरू हई थी। इसके बाद वह राजग और संप्रग सरकार में मंत्री रहीं। लेकिन पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम और सिंगूर में औद्योगिकरण के लिए वामपंथी सरकार द्वारा किसानों की जमीन जबरन लेने के खिलाफ किए गए उनके आंदोलन ने एक राजनेता के रूप में उनकी राजनीतिक जमीन को मजबूती दी। ममता बनर्जी ने कांग्रेस से अलग होकर जनवरी, 1998 में तृणमूल कांग्रेस का गठन किया था और वामपंथी शासन के खिलाफ हर छोटी-बड़ी लड़ाई के साथ वह अपनी पार्टी को मजबूत करती गईं। तृणमूल कांग्रेस के गठन के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव 2001 में आयोजित हुआ था और पार्टी राज्य के 294 विधानसभा सीटों में से 60 सीट पर जीत करने में सफल रही। लेकिन इसके बाद पार्टी की जीत का ग्राफ 2006 के विधानसभा में नीचे गिरा और वह 30 सीट पर ही जीत दर्ज कर पाई। इसके चार साल के बाद नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों का आंदोलन शुरू हो गया और ममता बनर्जी ने इसका नेतृत्व करना शुरू कर दिया। 

ऐतिहासिक था पश्चिम बंगाल में 2011 का विधानसभा चुनाव
पश्चिम बंगाल में 2011 का विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक था। लंबे समय से पश्चिम बंगाल वामपंथ का गढ़ था और ममता बनर्जी ने उस गढ़ को गिरा दिया। तृणमूल कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में 184 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इसके बाद से राज्य में तृणमूल कांग्रेस का शासन है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि यह ऐसा समय है जब पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति में अपनी छाप छोडऩी है। ऐसे समय में जब कांग्रेस इस स्थिति में नहीं है कि वह अकेले भाजपा से निपट सके तो तृणमूल कांग्रेस के कई नेता यह मानते हैं कि क्षेत्रीय पाॢटयां दिल्ली की कुर्सी का फैसला करने में मुख्य भूमिका निभा सकती है।  नाम नहीं जाहिर करने की शर्त पर तृणमूल कांग्रेस के एक नेता ने बताया, ‘‘ हम इस लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनने जा रहे हैं। अगर हम राज्य की ज्यादातर लोकसभा सीट जीतने में सफल रहे तो हम अगली सरकार बनाने में बड़ी भूमिका अदा करेंगे। 

तृणमूल कांग्रेस को 2014 में  34 सीटों पर जीत हासिल हुई थी
प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम चुनाव के बाद तय होगा और हम मुख्य दावेदारों में से एक होंगे। हमारी पार्टी सुप्रीमो जो केंद्रीय मंत्री भी रही हैं और मुख्यमंत्री भी हैं, उनकी स्वीकार्यता पार्टी लाइन से इतर भी है।‘‘ तृणमूल कांग्रेस को 2014 के लोकसभा चुनाव में 34 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। बनर्जी राजग के पांच साल के शासन में नोटबंदी, जीएसटी, असम में राष्ट्रीय पंजी, सीबीआई जैसी संस्थाओं में हस्तक्षेप और पुलवामा हमले के कथित राजनीतिकरण को लेकर अपनी आवाज उठाती रही हैं। लेकिन पार्टी के भीतर कई तरह की कठिनाइयां हैं। मजबूत इच्छाशक्ति वाली नेता की पार्टी के भीतर कलह की स्थिति है। बनर्जी ने मौजूदा 10 सांसदों को 2019 के लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं दिया है और वह 18 नए चेहरे लेकर आई हैं। उसकी आपसी कलह से धीरे-धीरे ही सही भाजपा को फायदा हो सकता है। नाम न जाहिर करने की शर्त पर तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने बताया, ‘‘ पार्टी के भीतर कई स्तर पर गुटबाजियां हैं और टिकट की इच्छा रखने वाले जिन लोगों को टिकट नहीं मिल पाया, हो सकता है कि वह कुछ क्षेत्रों में परेशानियां पैदा करें। लेकिन हम आशा करते हैं कि इस तरह की स्थिति जल्द समाप्त हो जाएगी।’’     


     

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