भारत के हर घर में कुछ इस तरह पहुंची महाभारत

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 11 Oct, 2019 07:36 AM

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विश्व के महानतम ग्रंथों में से एक विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में भरतवंश के राजा कौरवों एवं पांडवों का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रलयंकारी भीषण युद्ध की कथा को सर्वप्रथम बुद्धिदाता, विघ्नविनाशक भगवान

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विश्व के महानतम ग्रंथों में से एक विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में भरतवंश के राजा कौरवों एवं पांडवों का सम्पूर्ण इतिहास तथा प्रलयंकारी भीषण युद्ध की कथा को सर्वप्रथम बुद्धिदाता, विघ्नविनाशक भगवान श्री गणेश ने ही अपने कर-कमलों से लिपिबद्ध किया था इसलिए वह संसार के सर्वश्रेष्ठ लिपिक माने जाते हैं। हमारे देश में आज भी जब बच्चों को लिपि ज्ञान कराया जाता है तो सर्वप्रथम ‘ग’ गणेश का लिखवाकर विश्व के सर्वश्रेष्ठ शीघ्र लेखक श्री गणेश जी को ही सम्मान दिया जाता है। महाभारत की मूल कथा तो कौरवों और पांडवों का इतिहास ही है, किन्तु उस मूल कथा के अतिरिक्त इस ग्रंथ में अनेक जीवनोपयोगी, ज्ञानवर्धक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा कूटनीतिक दृष्टांतों, आख्यानों एवं उपाख्यानों की भरमार है। अनेक व्रतों एवं उपवासों की परम्पराएं इसी महाभारत के उपाख्यानों की ही देन हैं।

महाभारत में मूल कथा के अतिरिक्त जो उपाख्यान आए हैं वे इस प्रकार हैं (1) शकुंतलोपाख्यानम् (2) मत्स्योपाख्यान (3) रामोपाख्यान, (4) शिवि उपाख्यान (5) सावित्री उपाख्यान एवं (6) नलोपाख्यानम्।

उपरोक्त उपाख्यानों के अतिरिक्त कुछ पौराणिक गाथाएं भी इस ग्रंथ में मिलती हैं जैसे जनमेजय के नाग यज्ञ की कथा, समुद्र मंथन की कथा, कद्रू विनीता की कथा, च्यवन ऋषि की कथा, सुकन्या की कथा एवं इंद्र-वृत्रासुर की कथा आदि। इनके अतिरिक्त कुछ ख्याति कथाएं भी महाभारत में वर्णित हैं- मनु प्रलय कथा, अग्नि की प्रणय कथा, मृत्यु कथा, शृंगी ऋषि की कथा, अगत्स्य कथा, विश्वामित्र तथा वशिष्ठ के संघर्ष की कथा, आरुणि की कथा एवं नचिकेता की कथाएं आदि।

यह महान ग्रंथ महाभारत अठारह पर्वों (1) आदि पर्व, (2) सभा पर्व, (3) वन पर्व, (4) विराट पर्व, (5) विष्णु पर्व (6) भीष्म पर्व, (7) द्रोण पर्व, (8) कर्ण पर्व, (9) शल्य पर्व, (10) सौप्तिक पर्व, (11) स्त्री पर्व, (12) शांति पर्व, (13) अनुशासन पर्व, (14) अश्वमेघ पर्व (15) आश्रय  पर्व, (16) मसूल पर्व, (17) महाप्रस्थानिक पर्व तथा 18 (स्वर्गारोहण) पर्व में विभक्त है।

महाभारत के अंत में हरिवंश पुराण परिशिष्ट के रूप में सम्मिलित है। महाभारत के पर्व भाग में 95826 श्लोक तथा हरिवंश परिशिष्ट में 16 हजार श्लोक हैं। महाकाव्य महाभारत की कथा महर्षि पाराशर के र्कीतमान पुत्र महर्षि वेदव्यास के मानस पटल पर पूर्व में ही अंकित हो चुकी थी लेकिन उसे लिपिबद्ध करना अत्यंत दुरुह एवं दुष्कर कार्य था। अत: व्यास जी ने ब्रह्मा जी को अपनी चिंता से अवगत कराया। ब्रह्मा जी ने परामर्श दिया कि इस दृष्टि से भगवान गणेश जी ही सर्वाधिक बुद्धिमान और शीघ्र लेखक हैं। वह किसी भी कार्य को अतिशीघ्र सम्पन्न करने की क्षमता रखते हैं। अत: यह कार्य वही कर सकते हैं। ब्रह्मा जी के परामर्श से व्यास जी ने श्री गणेश जी के बारह नाम लेकर उनकी स्तुति की। वह स्तुति संस्कृत में इस प्रकार है : ॐ गं गणपतये नम:-

प्रथमं वक्रतुंड च एकदंतं द्वितीकम्। तृतीयं कृष्णपिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्।।
लम्बोदरं पंचमं च षष्ठै विकट एव च। सप्तं विघ्नराजं च धूम्रवर्ण तथाष्टकम्।।
नवमं भालचंद्रं च दशमं तु विनायकम्। एकादशं गणपित च द्वादशं तु गजाननम्।।

भगवान श्री गणेश जी के इन बारह नामों की महिमा के संबंध में निम्रलिखित श्लोक द्रष्टव्य हैं 
एतानि द्वादश नामानि प्रात: सायं पठेन्नर:। न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धयर्थ जायते।।
विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्। पुत्रार्थी लभते पुत्रान मोक्षार्थी लभते गतिम्।।

महर्षि वेद व्यास जी द्वारा जब उपरोक्त द्वादश नामों के उल्लेख के साथ प्रार्थना की गई तो प्रसन्नवदन भगवान श्री गणेश जी महाभारत कथा लिखने के लिए तैयार हो गए परंतु उन्होंने अपनी एक शर्त रख दी कि जब मैं लिखना प्रारंभ कर दूं तो मुझे बीच में रुकना न पड़े। अगर आप तनिक भी रुक गए तो मैं अपनी लेखनी भी रोक दूंगा और आगे नहीं लिखूंगा।

इस पर व्यास जी ने कहा आपकी शर्त मुझे मंजूर है परंतु मेरी भी एक प्रार्थना है कि आप जब लिखें तब हर श्लोक का अर्थ भली-भांति समझकर लिखें। गणेश जी व्यास जी की बात सुनकर मुस्कुराने लगे और व्यास जी की शर्त मानकर लिखने की स्वीकृति दे दी। इस प्रकार महाभारत की कथा का लेखन प्रारंभ हो गया। व्यास जी श्लोक गढ़-गढ़ कर बोलने लगे और गणेश जी उनके अर्थ समझ-समझ कर लिखने लगे। गणेश जी की लिखने की गति बहुत तेज थी। अत: बीच-बीच में व्यास जी श्लोकों को जटिल बना दिया करते थे। इस प्रकार भगवान गणेश जी ने महाभारत में सम्पूर्ण श्लोक लिपिबद्ध कर दिए।

महर्षि व्यास जी ने पहले यह कथा अपने पुत्र शुकदेव जी को कंठस्थ कराई तथा बाद में अपने अन्य शिष्यों को। कहते हैं नारद मुनि ने यह कथा देवताओं को सुनाई तथा शुकदेव जी ने गंधर्वों, राक्षसों और यक्षों को सुनाई। मनुष्य जाति को यह कथा सुविख्यात कथावाचक श्री वैशम्पायन मुनि ने सुनाकर जनरंजन लोक कल्याण के लिए कथा का प्रचार-प्रसार किया।


 

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