ऑफ द रिकॉर्डः 92 वर्ष बाद दिल्ली में भीषण साम्प्रदायिक दंगे

Edited By Seema Sharma,Updated: 28 Feb, 2020 08:21 AM

massive communal riots in delhi after 92 years

यह हैरानीजनक लग सकता है लेकिन सच है। भारत की राष्ट्रीय राजधानी ने पिछले लगभग 100 वर्षों में इस तरह से हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं देखे हैं। साम्प्रदायिक दंगों के दर्ज इतिहास में हाल ही में हुए दंगों में 1926-28 से लेकर अब तक सबसे ज्यादा लोगों की मौत हुई...

नेशनल डेस्कः यह हैरानीजनक लग सकता है लेकिन सच है। भारत की राष्ट्रीय राजधानी ने पिछले लगभग 100 वर्षों में इस तरह से हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं देखे हैं। साम्प्रदायिक दंगों के दर्ज इतिहास में हाल ही में हुए दंगों में 1926-28 से लेकर अब तक सबसे ज्यादा लोगों की मौत हुई है। बेशक आजादी के बाद भी दोनों समुदायों के बीच झगड़े और आगजनी की घटनाएं हुई हैं लेकिन कभी भी इतने ज्यादा लोग नहीं मरे हैं। आंकड़ों पर एक नजर डालते हैं : पहले प्रमुख दंगे अप्रैल 1926 में शुरू हुए और मार्च 1927 में समाप्त हुए।

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ब्रिटिश काल में हुए इन दंगों में 28 लोग मारे गए, जबकि 226 घायल हुए लेकिन ये 28 लोग कलकत्ता, बंगाल, पंजाब, संयुक्त प्रांतों, बॉम्बे प्रैजीडैंसी, सिंध तथा दिल्ली इन सब जगहों में मारे गए। इसके बाद साम्प्रदायिक दंगे अप्रैल 1927 में शुरू होकर मार्च 1928 तक चले जिनमें 103 लोगों की मौत हुई तथा 1,084 लोग घायल हुए। ये मौतें लाहौर, बिहार (2), ओडिशा (2), पंजाब (2), बेतिया, संयुक्त प्रांत (10), बॉम्बे प्रैजीडैंसी (6), केन्द्रीय प्रांत (2), बंगाल (2) तथा दिल्ली (1) में हुईं। अब इसकी तुलना अब तक के सबसे भीषण दंगों से करते हैं जो फरवरी 2020 में 4 दिनों के भीतर हुए, जिनमें 34 लोग मारे गए। ब्रिटिश काल में हुए दंगों का आरोप अंग्रेजों पर लगा जो हिंदुओं और मुसलमानों में फूट डालकर हमेशा भारत पर राज करना चाहते थे लेकिन इन 4 दिनों में हुए दंगों के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा?

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दिल्ली पुलिस, खुफिया एजैंसियों या भारत के नए लौह पुरुष को जो यह सब कुछ देखते रहे? इन सब लोगों ने नरेंद्र मोदी के 3 फरवरी के बयान को गंभीरता से नहीं लिया जिसमें उन्होंने कहा था कि दिल्ली के शाहीन बाग में हो रहे प्रदर्शन ‘संयोग’ नहीं बल्कि एक ‘प्रयोग’ हैं। स्पष्ट है कि मोदी को पहले ही इस बात का आभास हो गया था अथवा इस ‘प्रयोग’ के बारे में कुछ रिपोर्ट्स मिली थीं जो कि उन लोगों द्वारा किया जा रहा था जो साम्प्रदायिक सौहार्द को खराब करना चाहते थे।  1984 के दंगों को साम्प्रदायिक दंगे नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह कार्रवाई इंदिरा गांधी की हत्या के बाद एक समुदाय विशेष के खिलाफ की गई थी। यह एकतरफा कत्लेआम था लेकिन 2020 में अल्पसंख्यक समुदाय सी.ए.ए. के खिलाफ सड़कों पर उतर आया, जामिया इत्यादि में हिंसा की गई तथा बाद में मुस्लिम महिलाएं शाहीन बाग में धरने पर बैठ गईं। 

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केन्द्र की किसी भी एजैंसी ने इस बढ़ रहे तनाव को रोकने के लिए पहल नहीं की। अमानतुल्ला खान से लेकर अनुराग ठाकुर तक तथा प्रवेश वर्मा से लेकर वारिस पठान व कपिल मिश्रा तक ने आग में घी डालने का काम किया तथा नॉर्थ ब्लाक, न्यायपालिका द्वारा कार्रवाई का इंतजार करता रहा। इसके बाद पी.एम. द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को हिंसा पीड़ित क्षेत्रों में भेजा गया। इसके बाद शांति लौट आई लेकिन नुक्सान हो चुका था। प्रधानमंत्री के प्रिय लोगों ने ही उनके ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ मिशन को नुक्सान पहुंचाया।
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