पैट्रोल-डीजल पर ऊंची टैक्स दरों का बोझ आम लोगों को ही सहना पड़ता है

Edited By Punjab Kesari,Updated: 29 Apr, 2018 01:50 AM

most people have to bear the burden of high tax rates on petrol diesel

1990 का प्रथम खाड़ी युद्ध पैट्रोलियम तेल के लिए लड़ा गया था: यानी इस बात के लिए अरब देशों के तेल क्षेत्र पर किन कम्पनियों का अधिकार होगा? नार्वे ने बहुत समझदारी से काम लेते हुए अपने तेल राजस्व के आधार पर एक भावी कोष का निर्माण किया।

नेशनल डेस्कः 1990 का प्रथम खाड़ी युद्ध पैट्रोलियम तेल के लिए लड़ा गया था: यानी इस बात के लिए अरब देशों के तेल क्षेत्र पर किन कम्पनियों का अधिकार होगा? नार्वे ने बहुत समझदारी से काम लेते हुए अपने तेल राजस्व के आधार पर एक भावी कोष का निर्माण किया, इसके प्रयोग पर कड़ा नियंत्रण तथा वित्तीय अनुशासन भी लगाया है। लातिन अमरीका अर्थव्यवस्थाएं तेल राजस्व को प्रयुक्त करने के तरीकों के कारण ही फलती-फूलती या डूबती आई हैं। वेनेजुऐला के पास दुनिया के कुछ सबसे बड़े ज्ञात तेल रिजर्व हैं लेकिन इसके बावजूद इसका दिवाला निकल गया है। कई वर्षों तक रूस अपना वाॢषक बजट इस अवधारणा पर तैयार करता रहा कि कच्चे तेल की कीमतें 100 अमरीकी डालर या इसके आसपास रहेंगी। जैसे ही तेल कीमतें धराशायी हुईं, रूस की अर्थव्यवस्था भी लडख़ड़ाते हुए औंधे मुंह गिरी।

पैट्रोलियम तेल किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही निर्णायक महत्व रखता है। भारत की इसके आयात पर बहुत भारी निर्भरता है और हम अपनी जरूरतों का कम से कम 80  प्रतिशत पैट्रोलियम आयात करते हैं। जब 2014 में तेल की कीमतें धराशायी हुईं तो यह हमारे लिए छप्पर फाड़ कर भगवान का दिया हुआ उपहार सिद्ध हुआ। केन्द्रीय बजट कच्चे तेल की घटी हुई कीमतों पर आधारित था। इन कम कीमतों के कारण ही भाजपानीत राजग सरकार और प्रादेशिक सरकारों को इतनी गुंजाइश मिल गई कि वे उपभोक्ता पर जमकर टैक्स लगा सकीं और मुद्रास्फीति को बढ़ाए बिना भारी संसाधन बंटोर सकीं। जहां तक खर्च का सवाल हैं, एल.पी.जी., कैरोसिन एवं उर्वरकों के लिए दी जाने वाली सबसिडीज का आबंटन घटाया जा सकता था। सरकार ने रेलवे तथा अन्य विभागों में भी काफी बचत की। समूचे तौर पर यह समय सरकार के लिए बहुत बढिय़ा रहा। इसने परिस्थितिवश मिले गफ्फे का तो जमकर लाभ उठाया लेकिन इस बात के लिए एक क्षण भर भी मंथन नहीं किया कि जब दोबारा तेल कीमतें चढ़ेंगी तो यह क्या करेगी।

केन्द्रीय तथा प्रादेशिक सरकारों द्वारा हाल ही के वर्षों में पैट्रोल और डीजल पर टैक्सों के माध्यम से जो राजस्व बटोरा गया है जरा उस पर सारिणी में दृष्टिपात करें।

इस नीति का नकारात्मक पहलू यह था कि पैट्रोलियम तथा पैट्रोलियम उत्पादों से वसूल होने वाले टैक्सों पर हमारी निर्भरता बढ़ गई है। सरकार के कुल राजस्व में इन टैक्सों की प्रतिशत हिस्सेदारी 2013-14 के 15 प्रतिशत से लगातार बढ़ती हुई 2016-17 में 24 प्रतिशत तक पहुंच गई। दूसरी ओर पैट्रोलियम सैक्टर के टैक्सों से राज्य सरकारों की कमाई का प्रतिशत इसके सकल राजस्व में 2013-14 के 10 प्रतिशत स्तर से फिसल कर 2016-17 में 8 प्रतिशत पर आ गया।

‘टैक्स लगाओ और खर्च करो’ नीति की विफलता
भाजपा नीत राजग सरकार ने ‘टैक्स लगाओ और खर्च करो’ की रणनीति की शुरूआत की। फलस्वरूप सरकार का खर्च 2014-15 से लेकर 2016-17 के वर्षों दौरान बहुत तेजी से बढ़ा। ऐसा माना जाता था कि सरकार की पहलकदमी से जिस प्रकार खर्च के मामले में वृद्धि हो रही है उससे प्राइवेट निवेश करने वालों की भीड़ जुट जाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया इत्यादि जैसे विभिन्न नारों के बावजूद प्राइवेट निवेश बढऩे का नाम ही नहीं ले रहा। यहां तक कि 2013-14 में जिस सकल अचल पूंजी निर्माण (जी.एफ.सी.एफ.) का आंकड़ा 31.30 प्रतिशत पर इतरा रहा था  वह 2017-18 में लुढ़क कर 28.49 प्रतिशत पर आ गया। इसमें से प्राइवेट पूंजी निर्माण का तो और भी बुरा हाल रहा और यह आंकड़ा 2013-14 के 24.20 प्रतिशत से लुढ़क कर 2016-17 तक 21.38 प्रतिशत आ गया।

जहां तक ‘स्टार्ट अप इंडिया’ का सवाल है, इसका तो इंजन ही स्टार्ट होने का नाम नहीं ले रहा। सरकारी आंकड़ों से यह खुलासा होता है कि अब तक 6981 मान्यता प्राप्त स्टार्टअप कारोबारों में से मात्र 109 को ही सरकारी वित्तपोषण/समर्थन हासिल हुआ है।

वैसे ऐसी बात नहीं थी कि सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं है। पैट्रोल और डीजल पर टैक्स कटौती का यदि दिलेरी भरा कदम उठाया जाता तो उससे प्राइवेट खपत को बहुत जबरदस्त बढ़ावा मिल सकता था। टैक्सों में कटौती से उत्पादन लागतों में भी बचत होती और हमारे निर्यातक प्रतिस्पर्धात्मक कीमतें निर्धारित कर सकते थे जिससे निर्यात मोर्चे पर बल्ले-बल्ले हो जाती। इन दोनों बातों से उद्योग जगत की भी बांछें खिल जातीं क्योंकि एक ओर तो वह अपनी क्षमता का अधिक दोहन कर पाता तथा दूसरी ओर उत्पादकता एवं रोजगार को प्रोत्साहन मिलता।

ये वैकल्पिक युक्तियां या तो तलाश ही नहीं की गर्ईं या फिर इनसे सीधे-सीधे परहेज किया गया। दोनों ही हालातों में सवाल पैदा होता है कि ऐसा क्यों किया गया? मैं तो इसका केवल एक ही तार्किक कारण यह मानता हूं कि सामूहिक ङ्क्षचतन प्रक्रिया एवं सामूहिक निर्णायक प्रक्रिया की कमी है। जब कोई व्यक्ति सफेद घोड़े पर सवार होकर शहर में प्रवेश करता है और दावा करता है कि उसके पास देश की हर समस्या का समाधान मौजूद है और वह किसी अन्य की सलाह सुनने को तैयार नहीं और न ही असहमति के स्वर को बर्दाश्त करने को तैयार है तो इसका नतीजा वह होता है जिसे हम ‘मात्र एक ट्रिक दिखाने वाला टट्टू’ का नाम देते हैं। बढ़े हुए सरकारी खर्चे के सहारे होने वाले विकास का नाम ही गुजरात मॉडल है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह मॉडल कुछ देशों में तब बहुत कारगर सिद्ध हुआ जब आॢथक मंदी का दौर था। लेकिन भारत में तो मई 2014 में  कोई मंदी नहीं थी। सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार 2013-14 में अर्थव्यवस्था 6.4 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। ऐसा वृद्धि दर विकास को बढ़ावा देने का बहुत बढिय़ा मौका था लेकिन यह मौका भाड़ में गंवा दिया गया।

अब कोई विकल्प नहीं बचा
गत 4 वर्षों का अनुभव यही बताता है कि गुजरात माडल कारगर सिद्ध नहीं हुआ। अपने कार्यकाल का दूसरा वर्ष बीत जाने के बाद ही सरकार को गियर बदल देना चाहिए था लेकिन इसने ऐसा नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि एक जुलाई 2017 को जी.एस.टी. लागू होने के बाद समस्या विकराल रूप से बढ़ गई। सभी तरह की सलाह को दरकिनार करते हुए सरकार जी.एस.टी. की ऊंची और बहुआयामी दरों पर अड़ी रही। जिसके फलस्वरूप उद्योग जगत खास तौर पर एम.एस.एम.ई. को तो जिंदगी के लाले पड़ गए। नोटबंदी तथा त्रुटिपूर्ण जी.एस.टी. के दोहरे प्रहार ने निवेशकों  का बचा-खुचा दम भी पस्त कर दिया। पैट्रोलियम और डीजल दरों पर ऊंची दरों का बोझ आखिरकार तो आम जनता के कंधों पर ही पड़ता है। आम लोग बेचारे चुपचाप बर्दाश्त करते रहते हैं।

उनके पास और कोई विकल्प ही कहां होता है? लेकिन फिर भी लोग खुशी-खुशी इस बोझ को स्वीकार नहीं करते। दोपहिया वाहनों, कारों, टैक्सियों, आटोज और ट्रैक्टरों और व्यावसायिक ट्रकों के मालिकों में से किसी को पूछ कर देखिए-हर बार जब वे अपनी टैंकी में तेल भरवाते हैं तो केन्द्र सरकार को बद्दुआएं देते हैं। जब पैट्रोल और डीजल की कीमतें रिकार्ड ऊंचाई पर पहुंच गईं तो रोष की आवाजें भी कुछ ऊंची हो गईं। फलस्वरूप पैट्रोलियम और पैट्रोलियम उत्पादों को जी.एस.टी. के अंतर्गत लाने की मांग बलवती हो रही है।

सरकार चूंकि अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में कदम रख रही है। इसलिए इसके पास बहुत थोड़े विकल्प बचे हैं। वित्तीय नीतियां गढऩे की गुंजाइश काफी सिकुड़ गई है। सरकार ‘टैक्स लगाओ और खर्च करो’ की रणनीति से बहुत गहराई तक प्रतिबद्ध है और अंतिम वर्ष में इस रणनीति को उलटा घुमाना बहुत मुश्किल होगा। जैसे-जैसे कच्चे तेल की कीमतें बढ़ती जा रही हैं सरकार बदहवास और भौंचक्की होती जा रही है। ऐेसे में यही भविष्यवाणी की जा सकती है कि लोग ऊंची कीमतों, कमर तोड़ देने वाली टैक्स दरों के लिए तैयार रहें। आम खपतकार पर बोझ पहले से बढ़ जाएगा। वे इसे सहन तो करेंगे लेकिन बद्दुआ देने से खुद को नहीं रोक पाएंगे। - पी चिदंबरम

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