आंदोलनरत किसानों की ओर से लग रहे आरोपों से बरी होने का सही रास्ता खोजे सरकार

Edited By Anil dev,Updated: 21 Dec, 2020 04:54 PM

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विगत दिनों देश पर छाये कोरान संकटकाल में जब औद्योगिक कम्पनियां बंद हो रही थीं, लगभग देश का उत्पादन ठप्प था, बड़े-बड़े उद्योगपति अपनी कम्पनियों से कर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा रही थी। उन संकट के दौर में किसान का खेत उत्पादन दे रहा था,

नई दिल्ली (सुधीर शर्मा): विगत दिनों देश पर छाये कोरान संकटकाल में जब औद्योगिक कम्पनियां बंद हो रही थीं, लगभग देश का उत्पादन ठप्प था, बड़े-बड़े उद्योगपति अपनी कम्पनियों से कर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा रही थी। उन संकट के दौर में किसान का खेत उत्पादन दे रहा था, उसके खेत का अन्न और सब्जियां लोगों का पेट भर रही थीं। सरकारें भी उन्हीं किसानों के सहारे लोगों तक मुफत राशन पहुंचाकर अपनी पीठ थपथपा रही थी। वहीं किसान की गाय देश को दूध-घी देकर जनता का स्वास्थ्य सम्हालने में कामयाब रहा। तब किसान न बेरोजगार हुआ न हतास। उसने देश के संकट को सम्हालने में मदद करके गर्व अनुभव किया और उसने 3-5 प्रतिशत प्रोग्रेस दर्शायी। होना तो चाहिए था कि देश की सरकार अपने किसान को धन्यवाद स्वरूप उनकी वर्षों से कृषि प्रगति में बाधक मौलिक समस्याओं को सुनती तथा अधिक मजबूती से उनका निराकरण करती। पर उसके साथ हुआ बिल्कुल विपरीत। सरकार ने किसानों के लिए बिना उनकी सलाह लिए यह कृषि बिल लाकर तो लगता है उन्हें मजदूर बनाने पर तुल पड़ी। जिन उद्योगपतियों के कारण देश के करोड़ों लोगों की कोरोना काल मे नौकरी चली गयी, आम जनता को अपनी रोजी रोटी गवांनी पड़ी। जिन उद्योगपतियों द्वारा अपने उद्योंगों को सही से न सम्हाल पाने के कारण देश की जीडीपी लडखड़़ायी। 

देश मंदी और बेरोजगारी-भयानक मंहगाई का शिकार हो रहा है। लगता है कि हमारी सरकारने उन्हीं के चंगुल में हमारी कृषि व्यवस्था और इन किसानों को फंसाने का जैसे मन बना लिया हो। लगातार बढ़ती सर्दी के बीच किसानों का बिल के बिरोध में आंदोलन करना, सरकार के साथ की पार्टी का इस बिल को लेकर सरकार से अलग होना तथा अब सरकार के लगातार दिखते कठोर रवैया तो यही संकेत दे रहे हैं। किसानों के शुभ चिंतक और मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे बीरेंद्र जी सहित अब एक एक कर अनेक हस्तियां किसानों के समर्थन में उतर ही रही हैं। उन्होंने यहां कि कहा कि किसानों का साथ देना मेरा नैतिक कर्तव्य है। सरकार को किसानों से बात करनी चाहिये। किसान आंदोलन को लेकर केंद्र सरकार की विश्वसनीयता पर शंकाएं तब उठने लगी। जब सरकार ने किसानों की समस्याओं का समाधान नीतियों व संवैधानिक नियम के सहारे न निकालने की अपेक्षा, पूरे देश में आंदोलनरत किसानों के विपरीत प्रतिक्रिया वादी संगठन बनाने में जुट गई। सहज प्रश्न उठता है कि इस किसान बिल में ऐसी क्या मूल बात है, जिसका समाधान न तलाश कर सरकार उसे ढकने की कतरव्योत में जुट गई। 

सरकार देश के आंदोलनरत हजारों किसानों के विरोध में देश भर में नया जनसमूह खड़ा करके कौन सा देशहित साधना चाह रही है। वह भी कोविड-19 के इस दौर में जिसका हवाला देकर सरकार इन किसानों को आंदोलन से हटाने तक का प्रयास कर चुकी है। वास्तव में देशभर में केंद्रीय मंत्रियों को उतार कर किसान बिल की अच्छाई गिनाने हेतु जिस प्रकार आज छद्म किसान जनसभाएं करने के लिए ततपर है, यह कार्य यदि सरकार बिल लाने से पहले कर लेती तो सम्भवत: आंदोलन की नौबत ही न आती। इसी बात से तो आंदोलन पर बैठे किसान और सशंकित दिख रहे हैं और सरकार पर अविश्वास व्यक्त कर रहे हैं। आंदोलनरत किसान सरकार से पूछ रहे हैं कि आपने बिना किसान द्वारा मांग किये, बिना सलाह लिए ये बिल किसके कहने पर व किसके लिए सदन में ले आये और इतनी जल्दबाजी में पास करा डाला। बात भी आश्चर्यचकित करने वाली है कि सरकार का जो मंथन किसानों के साथ बिल लाने से पहले होना चाहिये था, उस कार्य को सरकार अब कर रही है, जब देश भर में बिल को लेकर हजारों किसानों के बीच विरोध का माहौल बन चुका है। आश्चर्य यह भी कि हजारों किसान विरोध स्वरूप बिल वापसी की आशा सहित दिल्ली को घेर के बैठे हैं और हमारे पीएम इनसे संबाद न करके, वे संबोधित मध्य प्रदेश के किसानों को कर रहे हैं। वह भी उन्हें घर से बुलाकर अनावश्यक तर्को के साथ कि सरकार ने 6 प्रतिशत खरीदी की है। किसानों के खातों में करोड़ों रुपये डाले हैं, किसानों को कहीं भी अपनी फसल को बेचने का अधिकार दिया है इत्यादि। 

वास्तव में किसान के लिए जिन अवसरों को देकर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है। वह तो किसानों को चाहिए ही नहीं। जबकि किसान को चाहिए उसके अनुकूल पर्याप्त भंडारण क्षमता, जो सरकार दे नहीं पा रही। किसान को चाहिए अपने लिए अनुकूल मंडी। किसान को चाहिए एमएसपी पर खरीदारी की गारंटी और न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे खरीदने वाले की गिरफतारी। जिसका आश्वासन सरकार के पास नहीं है। सरकार तो अपनी ही मनगढंत गए जा रही। रही बात 6 प्रतिशत खरीदारी करने की तो इतने विशाल देश के अपार उत्पादन की दृष्टि से यह किसान के लिए ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है। वास्तव में प्रश्न यह नही है कि सरकार ने क्या दिया, अपितु जरूरी सरकार के प्रयास से किसानों की समस्याओं का क्या समाधान निकला। यही नहीं सरकार की कठोरता को देखकर ही सुप्रीमकोर्ट तक को किसान बिल व किसान आंदोलन को लेकर हस्तक्षेप करना पड़ा। कोर्ट ने बिल होल्ड पर रखने और किसानों का पक्ष सुनकर कमेटी बनाने की बात तक कह डाली। सरकार तो लगता है कोर्ट की बात तक को नजरअंदाज करना चाहती है। ये सब ऐसी स्थितियां हैं जो सरकार के पक्ष को हास्यास्पद बनाते जा रहे हैं। 

ईमानदारी से विचार करें तो सरकार ने इस बिल व बिल के विरोध में उठने वाली हर आवाज को शुरू से ही काउंटर करने पर तुली रही। जबकि लोकतंत्र में बिरोध में उठने वाली हर आवाज का अपना महत्व होता है। सरकार का यह रवैया लोकतंत्र व संबिधान की दृष्टि से भी सरकार को सहज ही कठघरे में खड़ा करता दिखता है। इस किसान बिल को राज्य सभा सहित सदन में पारित कराने का दौर रहा हो, बिल के बिरोध के साथ उन्हीं के साथ रही अकाली दल का अलगाव हो, विपक्ष का किसानों को समर्थन करना हो, किसानों द्वारा दिल्ली कूच के दौरान सरकार का दुव्र्यवहार रहा हो अथवा इन आंदोलनरत किसानों पर खालिस्तानी, आतंकवादी, विदेशी फंडिंग जैसे आरोप लगता और इन्हें सरकार के नाक के नीचे हतोत्साहित करने जैसे पक्ष को लेकर भी सरकार उत्तर देने से बच नहीं सकती। यदि आंदोलनरत किसानों की वर्तमान जटिलताओं पर सरकार ने धयान न दिया, तो सरकार को महंगा पड़ेगा। ट्राली टैक जैसा पेपर निकाल कर किसानों ने मीडिया पर तमाचा जड़ ही दिया है। सरकार के लोग भी कहीं बीरेंद्र जी की तरह बिरोध में खड़े होने लगें, तो औद्योगिक घराने सरकार नहीं बचा पाएंगे। वैसे भी सरकार देश की जनता के लिए होती हैे, न कि औद्योगित हित धारकों के लिए। अत: लग रहे आरोपों से सरकार के बरी होने का यही रास्ता है कि सरकार किसानों के साथ सहानुभूति पूर्वक खड़ी दिखे। इसी में देश हित व किसान हित भी है, अन्यथा किसान इतनी आसानी से वापस जाने वाले लगते नहीे हैं।

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