नजरिया: मॉब लिंचिंग के खिलाफ कितना इंतजार?

Edited By Anil dev,Updated: 24 Jul, 2018 05:19 PM

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केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में ब्यान दिया है कि सरकार मॉब लॉन्चिंग पर गंभीर है और जरूरत पड़ी तो  इसपर कानून भी बनाया जा सकता है, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि जरूरत का पैमाना क्या है? पूरा देश ऐसी घटनाओं से दहशत में है। कहीं गाय के नामपर,...

नेशनल डेस्क (संजीव शर्मा): केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में ब्यान दिया है कि सरकार मॉब लॉन्चिंग पर गंभीर है और जरूरत पड़ी तो  इसपर कानून भी बनाया जा सकता है, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि जरूरत का पैमाना क्या है? पूरा देश ऐसी घटनाओं से दहशत में है। कहीं गाय के नामपर, कहीं बच्चा चोरी के शक में तो कहीं लड़कियां छेडऩे के शक में, हर तरफ मॉब लिंचिंग हो रही है और लोग भीड़  द्वारा मारे जा रहे हैं। अब तक के आंकड़े यह भी बताते हैं कि मारे गए सभी लोग निर्दोष थे। हालांकि दोषी को भी भीड़ द्वारा पीट पीट कर मारने का कोई तुक / या कानून नहीं है। हां इस तरह से कानून को हाथ में लेना गैरकानूनी है। लेकिन इसके बावजूद अगर सरकार चुप है और उसे लगता है कि अभी जरूरत नहीं है तो यह आश्चर्यजनक है।

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वैसे आश्चर्यजनक तो केंद्र सरकार के थिंक टैंक से सम्बंधित नेताओं के ब्यान भी हैं जो कह रहे हैं कि  बीफ खाना बंद  हो जाये तो मॉब लिंचिंग  बंद हो जाएगी। तो फिर तो तय ही है कि मौजूदा मॉब लिंचिंग गाय को लेकर ही है। तो क्या योजनाबद्ध है भी है? खैर वे कटटरवादी ब्यान किसी समस्या का हल भी नहीं हो सकते। वास्तविकता तो यह है कि कटटरवादिता ही मॉब लिंचिंग की जननी है। चाहे फिर वह शताब्दियों पूर्व वाली फ्रांस की क्रांति हो या दो दिन पहले की राजस्थान की कथित गो तस्करी। हमेशा भीड़ ने आधे अधूरे तथ्यों को सच मानकर कानून हाथ में लिया है और निर्दोषों को मारा है। 

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क्या कहता है मनोविज्ञान?
मनोविज्ञान मॉब लिंचिंग को लेकर स्पष्ट है कि यह बहुसंख्यक तबके द्वारा  ही की जाती है।  यह बहुसंख्यक तबका स्थान, काल के अनुसार बदलता रहता है।  यानी किसी एक समुदाय या तबके द्वारा ही मॉब लॉन्चिंग नहीं की जाती। कुछ  विशेषज्ञ इसे सामाजिक असमानता जनित भी मानते हैं।  यह भी द्विपक्षीय है। कहीं पर उत्पीड़ित एकसाथ आकर  खुद कानून हाथ में लेकर फैसला करने लग जाते हैं तो कहीं दबंग कमजोर पर अपने हिसाब से फैसला लेकर जुर्म करते हैं। 

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कैसे रुकेगी? 
अपने देश में अभी भीड़  की हिंसा रोकने के लिए कोई कानून नहीं है। मौजूदा मॉब लिंचिंग में आधुनिक तकनीक भी अहम भूमिका में है, लेकिन अपने देश का साइबर कानून भी इसे रोकने में समर्थ नहीं है। तभी तो अपुन व्हाट्सऐप और फेसबुक जैसी संस्थाओं से सिर्फ आग्रह /चेतावनी के लहजे मे बात करते हैं। ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट ने किसी सख्त कानून की मांग /सुझाव उठाया है तो गंभीरता से सोचना जरूरी है।  

राजनाथ सिंह के ब्यान कितने सही ? 
केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह का यह कहना तो आश्चर्यजनक है ही कि जरूरत हुई तो मॉब लिंचिंग पर कानून बनाया जाएगा, लेकिन उससे भी हैरत भरा वह  ब्यान है जिसमे उन्होंने 1984 के दंगों को मॉब लिंचिंग बताया। जबकि तमाम सिख समुदाय और देश इस बात को लेकर एकमत है कि  1984 के दंगे एक नरसंहार था। खुद बीजेपी इसे कांग्रेस का सोचा समझा षड्यंत्र बताती नहीं थकती। इसके विपरीत अधिकांशत: मॉब लिंचिंग त्वरित और अफवाह जनित होती है। अब अगर नरसंहार और एक या दो व्यक्तियों की हत्या में फर्क नहीं किया जाएगा तो यह काफी पेचीदा हो जाएगा। और अगर फिर वो मॉब लिंचिंग थी तो फिर गुजरात दंगे क्या थे? आयोध्या मसला क्या था? ऐसे कई प्रश्न भी उभरेंगे। बेहतर यही होगा कि चीजों को अपने अपने ढंग से परोसकर राजनीती करने के बजाए इस समस्या की गंभीरता को समझा जाए और इसपर तुरंत प्रभाव से रोक लगाई जाए।  

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