शोधः विदेशी नहीं देसी थे आर्य

Edited By Ravi Pratap Singh,Updated: 07 Sep, 2019 02:02 PM

research arya was not a foreigner

भारत में एक कहावत है कि झूठ के पैर नहीं होते। अब उस झूठ के भी पैर नहीं रहे जो वामपंथी इतिहासकारों ने दशकों से फैलाया हुआ था। इन दशकों में वामपंथी भारतीयों को यह झूठ समझाने में सफल रहे कि आर्य बाहर से आए थे। उन्होंने हिंसा कर भारत के मूल निवासियों को...

नेशनल डेस्कः भारत में एक कहावत है कि झूठ के पैर नहीं होते। अब उस झूठ के भी पैर नहीं रहे जो वामपंथी इतिहासकारों ने दशकों से फैलाया हुआ था। इन दशकों में वामपंथी भारतीयों को यह झूठ समझाने में सफल रहे कि आर्य बाहर से आए थे। उन्होंने हिंसा कर भारत के मूल निवासियों को मार भगाया। मूल रूप से इस थ्योरी के जनक मैक्स मूलर को माना जाता है। हालांकि इतिहासकारों में आर्यों को बाहरी बताने वाली थ्योरी को लेकर पहले से ही मतभेद रहे हैं।  

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हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी में पुरातत्व विभाग की खुदाई में दो मानव कंकाल मिले थे। इनमें एक कंकाल पुरुष का तो दूसरा महिला का है। इन कंकालों की डीएनए रिपोर्ट और कई अन्य सैंपलों से जुटाए गए डाटा ने वामपंथी इतिहासकारों के झूठ को धराशाही कर दिया। वैज्ञानिक आर्कियोलॉजिकल और जेनेटिक डेटा के अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंचे के आर्य और द्रविड एक ही थे।

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हिंदी के एक प्रमुख समाचार पत्र में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, राखीगढ़ी हड़प्पा सभ्यता के बड़े केंद्रों में से एक है। वर्ष 2015 में पुरातत्वविदों ने यहां करीब 300 एकड़ में खुदाई शुरू की थी। राखीगढ़ी साइट की शोध टीम के सदस्य और पुणे स्थित डेक्कन कॉलेज डीम्ड यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर प्रो. वसंत शदे और जेनेटिक साइंटिस्ट डॉ. नीरज राय ने शुक्रवार को यह जानकारी दी। शोध में सामने आया कि खुदाई में कंकाल 5000 साल पुराने हैं। इनकी डीएनए जांच कराई गई। इसके अध्य़यन से पता चला कि अफगानिस्तान से अंडमान तक सभी का एक ही जीन है और करीब 12 हजार साल से दक्षिण एशिया वासियों का एक ही जीन रहा है यानी सबका एक ही पूर्वज रहा है। इससे वामपंथी इतिहासकारों का वह दावा खोखला साबित हुआ जिसके आधार पर वह भारतीयों के बीच आर्यो और अनार्यों की खाई खींचने में सफल रहे थे।

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आज भी दक्षिण भारत की कई राजनीतिक पार्टियां इसी थ्योरी को आधार बताकर अपने को द्रविड बताती हैं और हिंदी समेत कई भारतीय मूल्यों को नकारती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आर्य को बाहरी बताने वाले आज तक आर्यों का मूल स्थान नहीं बता सके। इसलिए हमारे देश के बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों को इस पर जरूर विचार करना चाहिए कि इस असत्यापित तथ्य को हम आज भी इतिहास के रूप में हमारे बच्चों को पढ़ा रहे हैं। मुझे लगता है कि अब समय आ गया है कि तथ्यों के आधार पर इतिहास को पूनः लिखने की आवश्यकता है।

 

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